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________________ आस्तिक नास्तिक शब्द का परमार्थे जैन दर्शन आत्मा और परलोक का भूरि २ समर्थक है इसलिये अध्यात्मवादी आस्तिक दर्शनों की श्रेणी में अपना मुख्य स्थान रखता है। बस यही आस्तिकता और नास्तिकता का परमार्थ है जो कि संक्षेप से मैंने आपके सामने प्रस्तुत करदिया है । अब आइये स्वामी दयानन्दजी के कथन की ओर । सो उनका कथन तो मुझे ऐसा ही लगता है जैसे कोई मुसलमान यह कहता है कि “जो कोई खुदा के कलाम कुरानशरीफ पर ईमान नहीं लाता वह काफर है" काफर और नास्तिक दोनों एक ही अर्थ के परिचायक हैं । तब यदि एक मुसलिम व्यक्ति के उक्त कथन को सत्य मानकर कुरान को प्रमाण न मानने वाले मैं आप और आपके स्वामीजी आदि हम सब काफर बन सकते हैं, [ कुफर-झूठ बोलने वाले हैं ] तो जैनधर्म भी नास्तिकता की श्रेणी में परिगणित किया जा सकता है, इससे अधिक स्वामीजी के कथन में कोई और तथ्य हो तो श्राप बतला दीजिये। वेदोपजीवी न होने से जैनदर्शन को नास्तिक कहना यह तो उसके साथ अन्याय करना है ! वास्तव में विचार किया जाय तो जैनदर्शन वेदों का निन्दक नहीं अपितु "अग्निष्टोमेन यजेत स्वर्गकामः" इत्यादि वैदिक श्रुतियों के आधार से किये जाने वाले पशुबलिप्रधान वैध यज्ञों का विरोध करता है। "वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति" इस मान्यता को "अहिंसा परमोधर्मः” के अनन्योपासक जैनधर्म में कोई स्थान नहीं, यदि इसी हेतु से जैनधर्म को नास्तिक कड़ा व माना जाता है कि वह धर्म के नाम से की जाने वाली मूक प्राणियों की हत्या को अधर्म कहकर उसका विरोध करता है तो ऐसी नास्तिकता को स्वीकार करने में वह अपना अहोभाग्य समझता है । इसके अतिरिक्त इन वैध यज्ञों का उपनिषद्, महाभारत और भागवतादि वेदोपजीवी ग्रन्थों में भी बड़े तीव्र शब्दों में प्रतिवाद किया गया है अतः अवैदिकता भी नास्तिकता का हेतु नहीं है । तात्पर्य कि वेदों को अचेतनश्चपदार्थो नास्तिकः स्यादिति वक्तव्यम् , न्यायस्य तु प्रदर्शनात् भाष्यकारेण प्रतिपदं नोक्तम् । अस्तीत्यस्येति परलोक कर्तृका सत्ता विज्ञेया । तत्रैव विषये लोके प्रयोग दर्शनात् , तेन परलोकोऽस्ति, इति मतिर्यस्य स आस्तिकः तद्विपरीतो नास्तिकः ।। इति कैयटः ।। क. -प्लवा हो ते अढ़ा यज्ञरूपाः, अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । __एतत्-श्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः, जरामृत्युं पुनरेवापि यति ॥ ७ ॥ [मंडकोपनिषद् ] महाभारत शांतिपर्व अध्याय २८३ पिता पुत्र के संवाद में लिखा है "पशुयज्ञैः कथं हिंस्रादृशो यष्टुमहर्ति । अन्तवद्भिरिवप्राज्ञः, क्षत्रयज्ञैः पिशाचवत् ॥ ३३ ॥ (ख)-श्रीमद्भागवत स्कन्ध ४ अध्याय २५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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