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________________ श्री प्रताप सिंहजी से वार्तालाप स्वामीजी के इस कथन में कितना औचित्य है यह मैं आपसे जानना चाहता हूँ । इसके अतिरिक्त आर्य समाज के कतिपय अन्य सिद्धान्तों पर भी आपश्री के तटस्थ विचारों को श्रवण करने की मेरी अभिलाषा है । श्री आनन्द विजयजी – आपके इन प्रश्नों के सम्बन्ध में विचार करने से पहले मैं एक बात की ओर आपका ध्यान खेंचना चाहता हूँ। किसी भी मत या सम्प्रदाय की आलोचना से पहले उस मत के प्रवर्तक के अन्तरंग और बाह्य जीवन का भलीभांति निरीक्षण करना चाहिये। उसके अनन्तर उसने जो विचार प्रदर्शित किये हैं उनका अवलोकन भी आग्रह - रहित शुद्ध मनोवृति से करना चाहिये । सत्यगवेषक मनोवृति में आग्रह को स्थान नहीं होता । आजकल मतमतान्तरों में जो अनिच्छित संघर्ष पैदा हो रहा है उसका कारण भी ही संकुचित अथच दूषित मनोवृत्ति है । इसलिये जो व्यक्ति सत्य की गवेषणा करना चाहता है उसे सर्वप्रथम अपनी मनोवृत्ति को शुद्ध करना चाहिये । जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिम्बित होने वाली वस्तु अपने असली स्वरूप में दृष्टिगोचर होती है उसी प्रकार शुद्ध मनोवृत्ति से अवलोकन किया गया पदार्थ भी अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट हो जाता है अर्थात् उसका यथार्थ स्वरूप क्या है, इसका स्पष्टुभान होने लगता है । अस्तु, 1 Jain Education International I FFFFFC २५५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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