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________________ २५४ नवयुग निर्माता धर्म ही एक ऐसी वस्तु है जिसके अनुसरण से मानव इस जन्म मरण परम्परा से छुटकारा हासल कर सकता है । इसलिये राजन् ! इन आपात रमणीय सांसारिक विषय भोगों में अधिक आसक्त न होकर पुण्य संयोग से प्राप्त हुए मानव भव की अस्थिरता को ध्यान में रखकर जितना बने उतना शुभकर्म के अनुष्ठान में प्रवृत्त होने का यत्न करना चाहिये । श्री प्रतापसिंहजी-महाराज ! आपसे मिलकर मुझे बहुत आनन्द हुआ। मेरे शोक सन्तप्त हृदय को आपके इस उपदेशामृत से जो शान्ति और सान्त्वना मिली है उसके लिये मैं आपश्री का बहुत ही कृतज्ञ हूँ। आपके इस थोड़े समय के सत्संग से ही मेरे हृदय को बहुत सन्तोष प्राप्त हुआ है । कुछ समय मौन रहने के बाद फिर बोले-महाराज ! कुछ अर्ज करना चाहता हूँ यदि आज्ञा हो तो करूं ? श्री आनन्द विजयजी-करो बड़ी खुशी से करो । फकीरों का दरवाजा तो हर किसी के लिये हर समय खुला रहता है, आप तो एक सम्मान्य सद्गृहस्थ हैं, आपके साथ वार्तालाप करने में तो मुझे भी आनन्द आयगा । इसलिये आप जो कुछ भी पूछना चाहते हैं खुशी से पूछे । मैं उसका यथामति उत्तर देने का अवश्य यत्न करूंगा । और हमारा यह वार्तालाप तो प्रेम मूलक वार्तालाप है, इसमें सद्भावपूर्वक विचार विनिमय के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की भावना को तो कोई स्थान ही नहीं अतः आप जो कुछ भी कहना या पूछना चाहें बिना संकोच कहें या पूछे! श्री प्रतापसिंहजी-महाराज ! कहते हुए कुछ संकोच तो होता है मगर आपकी उदार मनोवृत्ति और प्रतिभा-सम्पत्ति की ओर ध्यान देते हुए किसी निश्चय पर पहुंचने की खातिर कहना भी उचित प्रतीत होता है। आप जैसे उदार चेता ज्ञान-सम्पन्न महापुरुष का सहयोग मिलना, यह भी हम लोगों के किसी शुभकर्म का ही फल है, इसलिये ऐसे लाभ के अवसर को खो देना भी मूर्खता होगी। जो बातें मैं आपसे पूछने लगा हूँ उन्हीं के सम्बन्ध में स्वामीजी के साथ आपका वार्तालाप कराने की मेरी इच्छा थी, परन्तु वह तो पूरी न हो सकी। स्वामीजी तो इस संसार से चल बसे और उनके दिये हुए विचार यातो उनकी लिखी हुई पुस्तकों में हैं, या उनके अधिक सम्पर्क में आने वाली व्यक्तियों के हृदय पर अंकित हैं, मगर वे कहां तक युक्तियुक्त हैं इसका निर्णय तो आप जैसे अन्य विद्वानों के साथ वार्तालाप करने से ही हो सकता है। इसी विचार को लेकर आज मैं आपसे पूछने लगा हूँ , उसमें यदि कोई अवज्ञा हो तो आप मुझे क्षमा करें ! श्री आनन्द विजयजी-राजन् ! आप जो चाहें पूछे, संकोच की कोई अावश्यकता नहीं । अब रही मान या अपमान की बात, सो साधु तो इन दोनों से ही पृथक् होता है ! श्री प्रतापसिंहजी-तो क्या महाराज ! जैनमत नास्तिक है ? स्वामीजी से जब कभी जैनमत विषयक वार्तालाप करने का अवसर मिला तब ही उन्होंने कहा कि यह तो वेदनिन्दक अनीश्वरवादी नास्तिक मत है इसकी तो चर्चा ही करनी व्यर्थ है इत्यादि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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