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अध्याय ६४
" जोधपुर का आमंत्रण"
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कार के चतुर्मास में जोधपुर के कुछ गण्य मान्य श्रावक आपके दर्शनों लिये आये और दर्शन एवं वन्दना नमस्कार करने के अनन्तर उन्होंने हाथ जोड़कर आपसे जोधपुर पधारने की विनत करते हुए कहा
कृपानाथ ! चातुर्मास पूरा होते ही आप जोधपुर पधारने की कृपा करो। इस समय जोधपुर में की उपस्थिति की बहुत आवश्यकता है । आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती जोधपुर में आये हुए हैं, जोधपुर दरबार और उनके भाई प्रतापसिंहजी दोनों स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचारों को बहुत अच्छा समझने लगे हैं और श्री प्रतापसिंहजी तो उनमें विशेष रूप से भाग लेने लग गये हैं। एक दिन दरबार श्री ने हम लोगों से फर्माया कि तुम्हारे जैनधर्म में कोई अच्छे महात्मा होवें तो बतलाओ, हमारी इच्छा है कि हम उनका स्वामीजी से वार्तालाप करावें और सत्यासत्य का निर्णय करें। तब हमने दरबार श्री से अर्ज किया कि महाराज ! इस समय जोधपुर में तो कोई खास ऐसे महात्मा नहीं है, परन्तु बीकानेर में पंजाब से
ये हुए गुरु महाराज श्री आनन्दविजय आत्मारामजी हैं जो कि इस समय जैनधर्म के सर्वोपरि महात्मा गिने जाते हैं उनका चतुर्मास बीकानेर में है, चौमासे में जैन साधु एक ही स्थान में रहते हैं किसी दूसरे ठिकाने नहीं जाते । तथा जैन साधु पैदल भ्रमण करते हैं किसी प्रकार की भी सवारी नहीं करते। हजूर की आज्ञा हो तो बीकानेर जाकर हम उनको जोधपुर पधारने की विनति करें यदि उनकी इच्छा होगी तो चौमासे के बाद वे इधर को विहार कर देंगे और लगभग दो तीन मास तक यहां पधार जावेंगे ।
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महाराज ! हमारे इस कथन को सुनकर दरबार श्री ने फर्माया कि आप लोग अवश्य बीकानेर जाकर उनसे जोधपुर पधारने की प्रार्थना करो और हमारी तर्फ से भी उनकी सेवा में नमस्कार पूर्वक यहां पधारने की अर्ज करनी इत्यादि । सो कृपानाथ ! चौमासा उठते ही आप जोधपुर पधारने की अवश्य कृपा करो ।
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