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________________ बीकानेर दरबार से भेट २४५ । यद्यपि द्रव्य नित्य और पर्याय अनित्य हैं, इसी प्रकार द्रव्य धर्मी और पर्याय उसके धर्म, द्रव्य कारण और पर्याय कार्य, द्रव्य गुणी पर्याय गुण, द्रव्य सामान्य पर्याय विशेष एवं द्रव्य एक और पर्याय अनेक हैं । तथापि द्रव्य और पर्याय आपस में एक दूसरे से सर्वथा पृथक् नहीं हैं कारण कि द्रव्य को छोड़कर पर्याय और पर्यायों को छोड़कर द्रव्य नहीं रहता । अथवा यं कहिये कि पर्याय द्रव्य से अलहदा नहीं हैं, और द्रव्य पर्यायों से पृथक् नहीं हो सकता । अतः ये दोनों ही सापेक्षतया भिन्न अथच अभिन्न हैं * । इसलिये पदार्थ न केवल द्रव्यरूप और न सर्वथा पर्यायरूप ही है किन्तु द्रव्य पर्याय उभयरूप है और उभयरूप से ही उसकी उपलब्धि होती है। सारांश कि द्रव्य और पर्याय धर्मी और धर्म, कारण तथा कार्य, जाति और व्यक्ति आदि एक दूसरे से न तो सर्वथा भिन्न हैं और न अभिन्न किन्तु भिन्नाभिन्न उभयरूप हैं । जिस प्रकार इनका भेद सिद्ध है उसी प्रकार अभेद भी प्रामाणिक है । दूसरे शब्दों में जिस प्रकार ये अभिन्न प्रतीत होते हैं उसी प्रकार इनमें विभिन्नता भी दृष्टिगोचर होती है । तब दो में से किसी एक का भी सर्वथा त्याग या स्वीकार नहीं किया जा सकता। अतः दोनों के अस्तित्व को सापेक्ष दृष्टि से स्वीकार करना ही न्यायसंगत और वस्तु स्वरूप के अनुरूप प्रतीत होता है। जैन दर्शन के अनेकान्त वाद का यही तात्पर्य है । वैदिक परम्परा के दार्शनिक विद्वानों ने भी तात्विक विचार में इस अनेकान्त बाद को अपने ग्रन्थों में किसी न किसी रूप में आदरणीय स्थान दिया है। * दव्वं पज्जव विरअं दव विउत्ता पज्जवा णत्थि । ___उपाय ट्ठिइ भंगा हंदिदविय लक्खणं एवं [सन्मतितर्क १५] छाया-द्रव्यं पर्याय वियुतं द्रव्य वियुक्ताश्च पर्यवा न सन्ति । उत्पादस्थिति भंगा हंन द्रव्य लक्षणमेतत् ।। इसके अतिरिक्त स्याद्वादमंजरी श्रादि ग्रंथों में इसी श्राशय का एक संस्कृत श्लोक देखने में आता है "द्रव्यं पर्याय वियुतं, पर्याया द्रव्य वर्जिताः । क्व कदा केन किंरूपा दृष्टा मानेन केन वा॥" $ कुछ उदाहरण लीजिये(क) वाचस्पति मिश्र "अनुभव एव हि धर्मिणो धर्मादीनां भेदाभेदी व्यवस्थापयति, नौ कान्तिकेऽभेदे धर्मादीनां धर्मिणो धर्मीरूपवद् धर्मादित्वम् , नाप्यैकान्तिके भेदे गवाश्ववद् धर्मादित्वं, सचानुभवोऽनैकान्तिकत्वमवस्थापयन्नपि धर्मादिषूपजनापाय धर्मकेष्वपि धर्मिणमेकमनुगमयन् धर्माश्च परस्परतो व्यावर्तयन् प्रत्यात्ममनुभूयत इति । तदनुसारिणो वयं न तमतिवर्त्य स्वेच्छया धर्मानुभवान् व्यवस्थापयितुमीश्मह इति ।" [ यो० भा० की तत्त्व विशारदी टीका ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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