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________________ २४६ नवयुग निर्माता जिससे अनेकान्त वाद की व्यापकता और प्रामाणिकता में किसी प्रकार के भी सन्देह को अवकाश नहीं रहता। ___मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार जैनदर्शन के अनेकान्तबाद का संक्षिप्त स्वरूप आपको बतला दिया है । अधिक देखने की जिज्ञासा हो तो इस विषय से सम्बन्ध रखने वाले, स्याद्वाद मंजरी, रत्नाकरावतारिका, शास्त्रवार्ता समुच्चय, अनेकान्त जयपताका और सन्मतितर्क प्रभृति ग्रन्थों का पर्यालोचन करें। भावार्थ-हमारा अनुभव ही धर्म धर्मी के भेदाभेद को सिद्ध कर रहा है । धर्म और धर्मी आपस में न तो सर्वथा भिन्न हैं और नाही सर्वथा अभिन्न इनको यदि सर्वथा अभिन्न मानें तो सुवर्ण धर्मी और हार मुकुटादि उसके धर्म, इस भेदनिबन्धन लौकिक व्यवहार का लोप हो जायगा । एवं मृत्तिका रूप धर्मी के घट शराब आदि धर्मों में जो पारस्परिक भेद तथा भिन्न २ कार्य साधकता देखी जाती है उसका भी उच्छेद हो जायगा । इसी प्रकार सर्वथा अभिन्न भी नहीं मान सकते । यदि धर्मी से धर्मों को सर्वथा भिन्न स्वीकार किया जाय तो इनका कार्य कारण सम्बन्ध ही दुर्घट है, तब तो सुवर्ण से हार मुकुटादि और मृत्तिका से घट शराव आदि कभी भी उत्पन्न नहीं होने चाहिये । और नाही हार मुकुटादि सुवर्ण के तथा घट शराव आदि मृत्तिका के धर्म हो सकते हैं कारण कि ये दोनों (धर्म धर्मी) एक दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं । गाय और घोड़ा आपस में सर्वथा भिन्न हैं । जिस प्रकार इनका धर्म धर्मी भाव और कार्य कारण भाव सम्बन्ध नहीं है, उसी प्रकार सुवर्ण, हार मुकुटादि, और मृत्तिका, घट शरावादि का धर्मधर्मीभाव और कार्य कारण भाव सम्बन्ध भी अशक्य होजायगा परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है । सुवर्ण रूप धर्मी से हार मुकुटादि और मृत्तिका से घट शराव आदि का उत्पन्न होना सर्वानुभव सिद्ध है। इसलिये धर्म धर्मी के आत्यन्तिक भेद और अभेद का निरास करके उनके भेदाभेद को ही अबाधित रूप से अनुभव हमारे सामने सम्यक्तया उपस्थित करता है । जिस अनुभव ने हमारे सामने धर्म धर्मी की अनेकान्तता को उपस्थित किया है वही अनुभव हमारे समक्ष अनुगत रूप से धर्मी में एकत्व और व्यावृत्ति रूप से धर्मों में अनेकत्र के साथ २ धर्मी के अविनाशित्व और धर्मों की विनश्वरता को भी उपस्थित करता है हम तो अनुभव के अनुसार ही पदार्थों के स्वरूप की व्यवस्था करने वाले हैं; तब अनुभव जिस बात की आज्ञा देगा उसी को हम स्वीकार करेंगे, अनुभव का उल्लंघन करके अपनी स्वतन्त्र इच्छा से वस्तु तत्त्व की व्यवस्था के लिये हम कभी तैयार नहीं हैं। इसके अतिरिक्त 'स्मृति परिशुद्धौ स्वरूप शून्येवार्थमात्र निर्भासा निर्वितर्का" [विभूति पाद सू० ४३] इस सूत्र के भाष्य की व्याख्या में आप लिखते हैं - "नैकान्ततः परमाणुभ्यो भिन्नोघटादिरभिन्नो वा, भिन्नत्वे गवाश्ववद् धर्मधर्मीभावानुपपत्तेः, अभिन्नत्वे धर्मीरूपवत्तदनुपपत्तेः, तस्मात कथंचिद् भिन्नः कथंचिदभिन्नश्चास्थेयः तथा च सर्वमुपपद्यते" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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