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________________ २४४ नवयुग निर्माता इनके अतिरिक्त प्रस्तुत विषय से सम्बन्ध रखनेवाला ऋषि व्यासदेव प्रणीत पातंजलयोग भाष्य का उल्लेख भी देखने योग्य है । " तत्र धर्मस्य धर्मिणिवर्तमानस्यैवाध्वसु- श्रतीतानागतवर्तमानेषु भावान्यथात्वं भवति न द्रव्यान्यथात्वं यथा सुवर्णभाजनस्य भित्वान्यथा क्रियमाणस्य भावान्यथात्वं भवति न सुवर्णान्यथात्वमिति” [ विभूति पा० सूत्र ११ का भाष्य ] अर्थात् जैसे स्वस्तिकादि अनेक विध आकारों को धारण करता हुआ भी सुवर्ण पिंड अपने मूल स्वरूप का परित्याग नहीं करता, तात्पर्य कि रुचक स्वस्तिकादि भिन्न २ आकारों के निर्माण होने पर भी सुवर्ण असुवर्ण नहीं होता किन्तु उसके आकार विशेष ही अन्यान्य स्वरूपों को धारण करते हैं, इसी प्रकार धर्मी में रहने वाले धर्मों का ही अन्यथाभाव-भिन्न २ स्वरूप परिवर्तन होता है धर्मी रूप द्रव्य का नहीं । धर्मी द्रव्य तो सदा अपनी उसी मूल स्थिति में रहता है। तब इस कथन से धर्मों का उत्पाद विनाश और धर्मी का धौव्य रूप निश्चित होने से वस्तु का उक्त स्वरूप सुतरां ही प्रमाणित हो जाता है । इस प्रकार वस्तु के उत्पाद व्यय और धौव्यात्मक होने से उसके दो स्वरूप प्रमाणित होते हैं एक विनाशी दूसरा अविनाशी । उत्पाद व्यय उसका विनाशी स्वरूप है जब कि धौव्य उसका अविनाशी स्वरूप है । जैन परिभाषा में पदार्थ के विनाशी स्वरूप को पर्याय और अविनाशी को द्रव्य के नाम से कथन किया है। जैसा कि मैंने पहले बतलाया है-जैन दर्शन को कोई भी वस्तु एकान्त नित्य अथवा अनित्य रूप से अभिमत नहीं वह सभी को नित्यानित्य उभयरूप मानता है । जिस प्रकार पदार्थ में नित्यत्व का भान होता है उसी प्रकार उसमें अनित्यता के भी दर्शन होते हैं । जब कि हमारा अनुभव ही स्पष्टरूप से पदार्थ में नित्यानित्यत्व की सत्ता को बतला रहा है तो एक को मानना और दूसरे को न मानना यह कहां का न्याय है ? पदार्थ को केवल एकान्त रूप से स्वीकार करने पर उसके यथार्थ स्वरूप का पूर्णतया भान नहीं हो सकता, कारण कि एकान्त दृष्टि अपूर्ण है । यदि पदार्थ को एकान्त नित्य ही मानें तो उसमें किसी प्रकार की परिणति नहीं होनी चाहिये, परन्तु होती है - उदाहरण स्वरूप सुवर्ण अथवा मृत्तिका को लीजिये । कटक कुंडल और घट शराब आदि सुवर्ण और मृत्तिका के ही परिणाम अथवा पर्याय विशेष हैं । इन प्रत्यक्ष सिद्ध पर्यायों पाप कापि नहीं हो सकता। इसी प्रकार सर्वथा अनित्य भी वस्तु को नहीं कह सकते, क्योंकि कटक कुंडलादि में सुवर्ण और घट शराब आदि में मृत्तिका रूप द्रव्य का अनुगत रूप से प्रत्यक्ष भान हो रहा है । इससे सिद्ध हुआ कि वस्तु एकान्ततया नित्य अथवा अनित्य नहीं किन्तु नित्यानित्य उभय रूप है । द्रव्य की अपेक्षा वह नित्य और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है ।* " द्रव्यात्मना स्थितिरेव सर्वस्य वस्तुनः पर्यायात्मना सर्वं वस्तुत्पद्यते विपद्यते वा" Jain Education International For Private & Personal Use Only [ स्यादवाद मंजरी पृष्ठ १५८] www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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