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________________ बीकानेर दरबार से भेट २४३ अर्थात् द्रव्य-मूल पदार्थ नित्य और आकृति-आकार-पर्याय अनित्य हैं । सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकार से पिंडरूप बनता है, पिंड का विध्वंस करके उसके रुचक-दीनार-मोहर बनाये जाते हैं, रुचकों का विनाश करके कड़े और कड़ों के धंस से स्वस्तिक बनाते हैं एवं स्वस्तिकों को गलाकर फिर स्वर्ण पिंड तथा उसकी विशिष्ट आकृति का उपमर्दन करके खदिरांगार सदृश दो कुंडल बना लिये जाते हैं । इससे सिद्ध हुआ कि आकार तो उत्तरोत्तर बदलते रहते हैं और द्रव्य वास्तव में वही है अर्थात् आकृतियों के विनाश होने पर भी द्रव्य शेष रहता है। महाभाष्यकार के इस कथन से द्रव्य की नित्यता और पर्यायों की विनश्वरता ये दोनों बातें सुनिश्चित होगई । तथा द्रव्य का धर्मी और पर्यायों का धर्म रूप से भी निर्देश होता है । सुवर्ण तथा मृत्तिका रूप द्रव्य धर्मी, कटक कुण्डल और घटशरावादि उनके धर्म कहे व माने जाते हैं। इनमें धर्मी अविनाशि और धर्म विनाशी-परिवर्तनशील है । कारण कि सुवर्ण तथा मृत्तिका के कटक कुंडल और घटशरावादि धर्म तो उत्पन्न होते हैं और विनष्ट होते हैं । परन्तु सुवर्ण और मृतिका रूप धर्मी-द्रव्य तो धर्मों के उत्पाद और विनाशकाल में भी सदा अनुगत रूप से ही अपनी स्थिति का ज्ञान कराते हैं। (२) महामति कुमारिलभट्ट का लेख वस्तु को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक-अर्थात् उत्पत्ति विनाश और स्थितिरूप सिद्ध करने में स्वच्छ दर्पण के समान है, यथा "वर्द्धमानक भंगेव रुचकः क्रियते यदा । तदा पर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः ॥२१॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं, तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् । नोत्पादस्थितिभंगानामभावस्यान्मति त्रयम् ॥२२॥ न नाशेन विना शोको, नोल्पादेन विनासुखम् । स्थित्याविना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्यता ॥२३॥ ___ इन श्लोकों का संक्षिप्त भावार्थ यह है कि-स्वर्ण के प्याले को तोड़कर जब उसका रुचक बनाया जावे तब जिसको प्याले की जरूरत थी उसको शोक और जिसे रुचक की आवश्यकता थी उसे हर्ष तथा जिसे स्वर्ण मात्र ही चाहिये था उसे हर्ष या शोक कुछ भी नहीं होता किन्तु यह मध्यस्थ ही रहता है, इससे प्रतीत हुआ कि वस्तु उत्पत्ति स्थिति और विनाश रूप है। क्योंकि उत्पत्ति स्थिति और विनाश ये तीनों धर्म यदि वस्तु के न माने जावें तो शोक प्रमोद और माध्यस्थ्य इनकी कभी उपपत्ति नहीं हो सकती। कुमारिलभट्ट के इस लेख से भी पदार्थ का व्यापक स्वरूप उत्पाद व्यय और ध्रौव्यात्मक ही सिद्ध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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