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नवयुग निर्माता
ध्वंस से
'मुकुट का उत्पन्न होना देखा जाता है, परन्तु इस उत्पत्ति विनाश के सिलसिले में मूल वस्तु सुवर्ण सत्ता बराबर मौजूद है। पिंड दशा के विनाश और कटक की उत्पत्ति दशा में भी सुवर्ण की सत्ता मौजूद है, एवं कड़े के विनाश और मुकुट के उत्पादकाल में भी सुवर्ण बराबर विद्यमान है । इससे यह सिद्ध हुआ कि उत्पत्ति और विनाश वस्तु के केवल आकार विशेष का होता है न कि मूल वस्तु का । मूल वस्तु तो लाखों परिवर्तन होने पर भी अपनी स्वरूप स्थिति से च्युत नहीं होती । कटक कुण्डलादि सुवर्ण के आकार विशेष हैं, इन प्रकार विशेषों का ही उत्पन्न और विनष्ट होना देखा जाता है। इनका मूलतत्त्व सुवर्ण तो उत्पत्ति विनाश दोनों से अलग है। इस उदाहरण से यह प्रमाणित हुआ कि पदार्थ में उत्पत्ति विनाश और स्थिति
तीनों ही धर्म स्वभाव सिद्ध हैं। इस लिए जगत के सारे ही पदार्थ उत्पति विनाश और स्थितिशील हैं, यह भलीभांति प्रमाणित हो जाता है । इसी आशय से जैन ग्रन्थों में "उत्पादव्ययधौव्ययुक्तं सत्" + यह पदार्थ का लक्षण निर्दिष्ट किया गया है। जैन दर्शन में उत्पाद व्यय को पर्याय और धौव्य को द्रव्य के नाम से अभिहित करके वस्तु-पदार्थ को द्रव्यपर्यायात्मक भी कहा है। उसमें द्रव्यस्वरूप नित्य और पर्याय स्वरूप अनित्य है । द्रव्य नित्य स्थायी रहता है और पर्याय बदलते रहते हैं ।
जैन दर्शन के इस सिद्धान्त का समर्थन वैदिक परम्परा दर्शनशास्त्रों में भी स्पष्ट शब्दों में किया गया है । उदाहरणार्थ - महाभाष्य के प्रणेता महर्षि पतंजलि मीमांसकधुरीण कुमारिलभट्ट के उल्लेख देखिये
(१) महाभाष्य का लेख
" द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या सुवर्णकयाचिदाकृतयायुक्तं पिण्डोभवति पिंडाकृति पद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृधकटकाः क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रिन्ते. पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः पुनरपरयाऽऽकृत्यायुक्तः खदिरांगारसदृशेकुण्डले भवतः । श्राकृतिरन्या चान्या च भवति द्रव्यं पुनस्तदेव प्रत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते !"
+ श्री उमास्वाति विरचित तत्त्वार्थसूत्र ० ५ सू २६ ।
भाष्यम् – उत्पादव्ययौधौव्यंच युक्तं सतोलक्षणम् । यदुत्पद्यते यद्व्ययेति यच्च ध्रुवं तत् सत् तोऽन्यदसदिति ।
तथा श्रागम पाठ -- उपज्जेश्वा विगमेइवा, धुवेइवा -
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वस्तुतत्त्वंच उत्पादव्ययधौव्यात्मकम् - [स्याद्वादमंजरी] वस्तुनःस्वरूपं द्रव्यपर्यायात्मकत्वमितिश्रमः [स्या० वा० मंजरी ]
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