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________________ बीकानेर दरबार से भेट २३६ बाद उसी समय हाथी मंगवाया गया और उसका मूल्य कराकर खजाने से रुपया मंगवाकर गरीबों को बांदा गया इधर हकीमजी ने औषधि भी देनी आरम्भ करदी जिससे राजा साहब राजी होगये और हकीम सुक्खुमले को यश और धन दोनों का लाभ हुआ। आपका यहां पर आना कैसे हुआ हकीमजी ? राजा ने सहज उत्सुकता से पूछ।। हमारे गुरुमहाराज श्री आनन्द विजयजी का यहां चातुर्मास है उनके एक साधु वीमार थे उनकी दवाई और गुरुमहाराज के दर्शनार्थ आया हूँ, हकीमजी ने बड़े सरल शब्दों में उत्तर दिया । यह सुनकर दरबार बीकानेर को भी आपके दर्शन करने की उत्कंठा जागी। उनके पास एक सन्यासी महात्मा रहते थे उनकी सम्मति पूछी तो उन्होंने भी आपके विचारानुसार ही सम्मति दी। परन्तु मिलना कहां पर हो इसके लिये सेठ चान्दमलजी ढड्ढा की सलाह से उनकी कोठी में मिलने का प्रबन्ध किया गया। सेठ चान्दमलजी ढड्ढा बीकानेर के प्रतिष्ठित रईस थे और ओसवाल जैन थे। परन्तु आपके हृदय पर वैदिक सम्प्रदाय के संस्कारों का प्रभाव अधिक पड़ा हुआ था । दरबार बीकानेर आपका बहुत मान करते थे। महाराज श्री जब ढड्ढाजी साहब की कोठी में पधारे तो राजासाबं ने आगे आकर आपका सप्रेम स्वागत किया और श्रद्धापूर्वक नमस्कार कर के आपको बैठने की प्रार्थना की। इधर सन्यासी महात्मा के साथ भी साधुजनोचित शिष्टाचार करने के बाद आप अपने आसन पर विराज गये । श्रीयुत चान्दमलजी ढड्ढा ने आपको वन्दना की और सप्रेम सुखसाता पूछी । आपने भी उत्तर में धर्मलाभ दिया । सबके यथास्थान बैठ जाने पर-"आप श्री के दर्शनों से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई और आपका इस नगर में पदार्पण करना मेरे लिये तो जीवनदान ही प्रमाणित हुआ है । राजासाहव ने बड़ी नम्रता से निवेदन किया । महाराजजी साहब-राजन् ! जैसा होना होता है उसके अनुसार वैसे ही निमित्त मिल जाते हैं,-"सहायास्तादृशा ज्ञेया यादृशी भवितव्यता" श्रापका आयुकर्म शेष था और असातावेदनीय कर्म का क्षय और सातावेदनीय के उदय का अवसर आजाने पर उसके अनुरूप निमित्त भी मिलगया। निश्चय में तो ऐसा ही है बाकी तो यह सब व्यावहारिक बातें हैं कि अमुक ने इलाज किया और अमुक अच्छा होगया इत्यादि । ___ सन्यासी महात्मा-हमारा यह परम सौभाग्य है कि आज हमें अाप जैसे त्यागशील तपोनिधि महापुरुष के दर्शनों का लाभ हुआ है । आप जैन दर्शन के प्रकाण्ड विद्वान् हैं और हम लोग जैन दर्शन से सर्वथा अनभिज्ञ हैं, इसलिये हम जैन दर्शन के विषय में आपसे कुछ जानना चाहते हैं उसमें भी जैन दर्शन का जो अनेकान्तवाद है उसके यथार्थ स्वरूप से परिचित होने की हम सब की जिज्ञासा अधिक है। दैवयोग से आपका यह पुण्य संयोग प्राप्त हुआ है यदि कुछ कृपा करें तो हमें बहुत लाभ होगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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