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________________ २४० नवयुग निर्माता - ‘महाराजजी साहब-स्वामीजी की ओर दृष्टिपात करते हुए-मैं तो आपसे वेदान्त के विषय में कुछ सुनने की इच्छा रखता था परन्तु आप तो मुझे ही सुनाने के लिये फरमा रहे हैं। राजा साहब-महाराज ! स्वामीजी ने जो कुछ फरमाया है मेरी भी उसी के सुनने की अभिलाषा है, वेदान्त के विषय में तो बहुत बार सुनने का अवसर मिला है, परन्तु जैनधर्म या उसके दार्शनिक सिद्धान्तों के विषय में सुनने का आजतक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ, इसका पुण्य अवसर तो आज ही प्राप्त हो रहा है, आशा है आपश्री हम लोगों की इस अभिलाषा को अवश्य पूर्ण करने की कृपा करेंगे। श्री ढड्ढाजी-महाराज ! मेरी भी आपके चरणों में यही प्रार्थना है कि आप कृपा करके स्वामीजी और दरबार श्री के प्रस्ताव को स्वीकार करने की कृपा करें। आपके मुखारविन्द से ही उक्त विषय पर सुनने की हम सब की तीव्र अभिलाषा है। _ महाराजश्री-अच्छा यदि आप सब की यही इच्छा है तो मुझे भी सुनाने में कोई इनकार नहीं है। अनेकान्तवाद यह जैन दर्शन का प्रधान विषय है, जैन तत्त्वज्ञान की सारी इमारत अनेकान्तवाद के सिद्धान्त पर अवलम्बित है, वास्तव में इसे जैन दर्शन के तात्विक विचारों की मूल भित्ति समझना चाहिए। अनेकान्त शब्द, एकान्तत्व-सर्वथात्व-सर्वथा एवमेव इस एकान्त निश्चय का निषेधक और विविधता का विधायक है, सर्वथा एक ही दृष्टि से पदार्थ के अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण समझकर ही जैनदर्शन में अनेकान्तवाद को मुख्य स्थान दिया गया है। अनेकान्तवाद का अर्थ है, पदार्थ का भिन्न २ दृष्टिबिन्दुओं-अपेक्षाओं से पर्यालोचन करना, तात्पर्य कि एक ही पदार्थ में भिन्न २ वास्तविक धर्मों का सापेक्षतया स्वीकार करने का नाम अनेकान्तवाद है । यथा एक ही पुरुष अपने भिन्न २ सम्बन्धीजनों की अपेक्षा से पिता, पुत्र और भ्राता आदि संज्ञाओं से सम्बोधित किया जाता है। इसी प्रकार अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु में विभिन्न अनेक धर्मों की सत्ता प्रमाणित होती है। स्याद्वाद, अपेक्षावाद और कथंचित्वाद, अनेकान्तवाद के ही पर्याय समानार्थवाची शब्द हैं। • स्यात् का अर्थ है कथंचित् किसी अपेक्षा से अर्थात् स्यात् यह सर्वथात्व-सर्वथापन का निषेधक अनेकान्तता का द्योतक कथंचित् अर्थ में व्यवहृत होने वाला $ अव्यय है कितने एक लोग “स्यात्" का अर्थ, शायद कदाचित् इत्यादि संशयरूप में करते हैं परन्तु यह उनका भ्रम है। $ क-अत्रसर्वथात्व निषेधकोऽनेकान्तद्योतकः कथंचिदर्थेस्याच्छब्दोनिपातः। [पंचास्तिकाय टीका-अमृतचन्द्रसूरि श्लो० १४ ] ख-स्यादित्यव्ययमनेकान्तद्योतकम्, ततःस्याद्वादः अनेकान्तवादः नित्यानित्यादि धर्मशबलैकवस्त्वभ्युपगम इति यावत्। [स्याद्वाद मंजरी का० ५ पृ० १५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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