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अध्याय ६३ 'बीकानेर दरकार से मेट'
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बीकानेर के चतुर्मास में आपके प्रधान शिष्य श्री लक्ष्मीविजय-श्री विश्नचन्दजी बीमार पड़गये । परन्तु आयु अभी शेष थी इसलिये अच्छे होने का निमित्त भी मिल गया। जंडियालागुरु के रहने वाले हकीम सुक्खुमल [जो कि जाति के नापित थे परन्तु महाराज श्री के अनन्य भक्त थे] वहां आपके दर्शनार्थ आगये
और उनके उपचार से श्री लक्ष्मीविजय जी अच्छे होगये । इन्हीं दिनों में दरबार बीकानेर भी बीमारी की हालत में चारपाई पर पड़े हुए थे । अच्छे २ वैद्यों और डाक्टरों के उपचार से भी कोई लाभ नहीं हुआ। इतने में उनके पास रहने वाले किसी आदमी ने उनसे कहा कि अन्नदाता ! यहां पर पंजाब के जैन साधु चौमासा रहे हुए हैं । उनके पास एक हकीम आये हुए हैं, जिन्होंने उनके एक बीमार साधु का इलाज किया है, वह बिलकुल अच्छा होगया है, यदि अन्नदाता आज्ञा दें तो उनको बुलाकर दिखा दिया जावे ।
दरबार-बुलाइये ! अवश्य बुलाइये ।
इतना हुक्म होने के बाद वहां से आदमी आया और हकीमजी को बुलाकर लेगया । हकीम सुक्खुमल ने दरबार बीकानेर को देखा और कहा कि हजूर आप बहुत जल्दी अच्छे हो जाओगे । परन्तु अकेली औषधि पर ही निर्भर न रहें कुछ और भी करें।
दरबार-वह क्या ? हकीमजी-दान, दान से जल्दी कल्याण होता है महाराज ! दान सौ औषधि की एक औषधि है। दरबार-तो बताओ क्या दान करें ?
सुक्खुमल–साधारण लोग तो रुग्णावस्था में गौदान करते हैं, परन्तु आप तो महाराजा हैं इसलिये आपको तो हाथी दान करना चाहिये-हकीमजी ने उचित समय का विचार करके कहा । इतना सुनने के
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