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________________ अध्याय ६२ "पुन: गुजरात की ओर इस प्रकार पंजाब में जैनधर्म की पुनः स्थापना करने के बाद आपने अपने नवीन शिष्यों को छेदोपस्थापनीय चारित्र अर्थात् बड़ी दीक्षा दिलाने के लिये गुजरात-अहमदाबाद की ओर विहार किया। कारण कि उस समय श्री बुद्धिविजय-बूटेरायजी महाराज के परिवार में गणि श्री मुक्तिविजय-श्री मूलचन्दजी महाराज के सिवा और किसी को इस संस्कार के कराने का अधिकार नहीं था और वे उस समय अहमदाबाद में थे इसलिये आपको जल्दी ही पंजाब को छोड़कर वहां जाने के लिये विहार करना पड़ा। अम्बाले से विहार करके आप दिल्ली पधारे । वहां आपको भावनगर की जैनधर्म प्रसारक सभा की तरफ से “समकितसार" नामकी एक पुस्तक मिली, और सभा के मंत्री ने आपको उसका उत्तर लिख भेजने की प्रार्थना की । आपने पुस्तक को पढ़ा और उसका उत्तर लिखना आरम्भ कर दिया। वह उत्तर 'सम्यक्त्वशल्योद्धार' के नाम से प्रसिद्ध है। दिल्ली से मेरठ होते हुए श्री हस्तिनापुर पधारे वहां की यात्रा करके जयपुर, अजमेर और नागौर आदि शहरों में विचरते हुए बीकानेर पधारे और १६४० का चातुर्मास बीकानेर में किया । वहां पर आपने सतरां भेदी पूजा के बाद 'बीस स्थानक पूजा' की रचना की। इस पूजा में भी अन्त के कलश में आपने अपनी गुरु परम्परा का बड़ी सुन्दरता से परिचय दिया है यथा "शुद्धमन करोरे आनन्दी विंशति पद शुद्ध० अंचली। विंशति पदपूजन करि विधि सुं, उजमण करो चित्त रंगी ॥१॥ ए सम अवर न करणी जग में, जिनवर पद सुख चंगी ॥२॥ तपगच्छ गगन में दिन मणि सरिखे, विजयसिंह विरंगी ॥३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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