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अध्याय ६० सतरामदी पूजा की रचना
-OC:देश जाति अथवा सम्प्रदाय किसी का भी नेतृत्व करना कठिन ही नहीं किन्तु अत्यन्त कठिन होता है। सबको संभालना, उनकी आवश्यकताओं को पूरा करना एवं सुरक्षित रखना इत्यादि सभी बातों का उत्तरदायित्व नेता पर होता है । पंजाब में आपके उपदेश देने से पहले देवपूजा और उसकी विधि का किसी को ध्यान तक भी नहीं था। सब कुछ नया ही सिखाना होता था। तब प्रभु प्रतिमा के आगे देवों द्वारा की गई सतरां भेदी पूजा का समारम्भ किस प्रकार करना, यह तो पंजाब के जैनधर्म में दीक्षित हुए गृहस्थों के लिये बिलकुल ही अज्ञात था। गुजराती भाषा से वे सर्वथा अपरिचित थे। इस कमी की पूर्ति का ख्याल करके विविध प्रकार की राग रागणियों से युक्त पूजाओं की रचना का भी आरम्भ किया जिनमें सर्वप्रथम श्रावक वर्ग की विनति पर सतरां भेदी पूजा की रचना की। उसके अन्तिम कलश में आपने जो कुछ लिखा है वह बड़ा ही मनोरंजक है, उसमें सारी गुरु परम्परा का उल्लेख कर दिया है । यथा
"जिनन्द जस आज मैं गायो, गयो अघ दरमो मनको । शत अठ काव्य हूँ करके थुणे सब देव देवन को ॥१॥ तपागच्छ गगन रविरूपा, हुआ विजयसिंह गुरु भृपा । सत्य कपूर विजय राजा, क्षमा जिन उत्तमा ताजा ॥२॥ पद्म गुरु रूप गुण भाजा, कीर्ति कस्तूर जग छाजा। मणि बुधि जगत में गाजा, मुक्तिगणि सम्प्रति राजा ॥३॥ विजय आनन्द लघुनन्दा,निधिशिखी ३ अंक है चन्दा ।
अम्बाले नगर में गायो, निजातम रूप हूँ पायो ॥४॥ इतने वर्षों में महाराज श्री श्रानन्दविजयजी के परिवार में श्री लघुहर्ष विजयजी, श्री उद्योतविजय जी आदि १६ शिष्य नये हुए । उनमें जिस २ की दीक्षा उनके हाथ से हुई, उस उसके नाम ही इस चरित्र में उल्लेख किये गये हैं, बाकी के शिष्यवर्ग की नामावली परिशिष्ट में दिये गये वंश वृक्ष से जान लेनी।
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