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अध्याय ५७
"सत्यार्थप्रकाश की चर्चा"
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जिन दिनों आप गुजरांवाले में बिराजमान थे, किसी ने आपको वर्तमान आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती का बनाया हुआ सत्यार्थप्रकाश नाम का ग्रन्थ लाकर दिया जोकि ईस्वी सन् १८७५ का छपा हुआ था । उक्त पुस्तक में जहां अन्य मतों का खंडन किया गया था वहां जैन धर्म पर भी सभ्यता से गिरे हुए बिना प्रमाण के उल्लेखों की भी कमी न थी । जैनधर्म सम्बन्धी बिना सिर पैर की लिखी हुई बातों को देख कर आप बहुत विस्मित हुए और कहने लगे कि इस ग्रन्थ के लेखक को क्या समझा जाय ? इसने जो कुछ लिखा है उसमें तो यह महान हठी दुराग्रही और परले सिरे का निन्दक प्रतीत होता है। तथा परमत विद्वेष तो इसकी नस २ में भरा हुआ मालूम देता है । इसके अलावा जैन धर्म का तो इसे एक अबोध बालक जितना भी बोध प्रतीत नहीं होता। फिर इस महात्मा ने इतना दुःसाहस क्यों किया यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। इससे तो जैनधर्म विषयक बोध न रखने वाली जनता के लिये बड़े अनर्थ की सम्भावना है अस्तु इसका भी अवसर आने पर विचार किया जावेगा। महाराज जी साहब की इन बातों को सुनकर पास में बैठे हुए ला० ठाकुरदासजी-जो गुजरांवाले के श्रावक थे और विचारशील तथा पढ़े लिखे थे-ने कहा-महाराज ! इसमें अपने धर्म के विरुद्ध जो कुछ लिखा है वह कृपया मुझे बतलाइये मैं उनसे पूछने का यत्न करूंगा।
महाराज जी साहब-भाई ! क्या बतलाऊं, एक आध बात हो तो बतला भी दूं, परन्तु यह तो सारे का सारा झूठ का पुलन्दा है और फिर यदि इसमें से एक आध बात तुम्हें बतला भी दी जावे तो उसका उत्तर तो वह नहीं देगा किन्तु इधर उधर की बातें करके तुम्हें टालने की कोशिश करेगा, खिलाड़ी-चालबाज़ व्यक्ति प्रतीत होता है।
ठाकुरदासजी-महाराज ! आप इस विषय में निश्चित रहिये, मैं भी कच्चाभूत हूँ अगर पीछे जग गया तो छोड़ने वाला नहीं हूँ, आप बतला और समझा दीजिये।
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