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नवयुग निर्माता
नवाव साहिब के फरमाने पर एक घुड़सवार को साथ लेकर खजाची साहब महाराजजी साहब से रास्ते में जा मिले और वन्दना नमस्कार करके बोले-महाराजजी साहब कृपा करो! नवाब साहब ने आपके जाने का सुनकर बहुत दुःख मनाया है और वापिस लौट आने की अर्ज की है, इसके प्रमाणरूप उन्होंने अपना घुड़सवार आपकी सेवा में भेजा है । तब घुड़सवार ने घोड़े पर से नीचे उतर कर आपको झुककर सलाम किया और बोला कि महाराज ! हजूरवाला ने आपको सलाम कही है और कहा है कि मेरे ऊपर नेक नज़र करके आप वापिस लौट आने की तकलीफ करें तथा अपनी दीक्षा सम्बन्धी सारी कारवाई अपनी इच्छा के अनुसार करें उसमें अब किसी तरह की भी रुकावट नहीं आवेगी।
खज़ाञ्ची और घुड़सवार की बातों को सुनकर भी महाराजजी साहब वापिस लौटने को राजी तो नहीं थे मगर खजाश्ची जी के आग्रह से वे पीछे लौट आये। आने पर दीक्षा का कार्य बड़ी धूम धाम से निश्चित समय पर सम्पन्न हुआ। महाराज श्री ने हठीसिंहजी को श्री लक्ष्मीविजयजी का शिष्य घोषित करते हुए शान्तिविजय नाम रक्खा । मालेर कोटला की जनता को इस प्रकार के दीक्षा समारोह देखने का यह पहला ही अवसर था इसलिये उसने जलूस की शोभा को बढ़ाने में उत्साहपूर्वक भाग लिया। मालेर कोटले का यह दीक्षा महोत्सव अपनी शान का एक ही था ।
दीक्षा के उपरान्त आपने जंडियाले को विहार किया, मालेर कोटले से लुधियाना और जालन्धर होते हुए आप जंडियाला पधारे, १६३६ का चतुर्मास जंडियाले में किया । चौमासे बाद नारोवाल, सनखतरा जीरा, पट्टी और अमृतसर होते हुए गुजरांवाला पधारे और १६३७ का चतुर्मास गुजरांवाले में बिताया। यहां चातुर्मास आरम्भ होने के पूर्व आपने दो गृहस्थों को दीक्षा देकर उनके श्री माणिक्यविजय और मोहनविजय नाम रक्खे।
"जैनतत्वादर्श की रचना" गुजरांवाला के चतुर्मास में बहुत से लोगों की प्रार्थना से, संस्कृत और प्राकृत का बोध न रखने वाले लोगों को भी जैन धर्म के सिद्धान्तों का सम्यक् बोध हो सके, इस दृष्टि से हिन्दी भाषा भाषी जगत के लिये “जैनतत्त्वादर्श' के नाम से एक हिन्दी ग्रन्थ की रचना का आरम्भ किया जोकि १६३८ के चातुर्मास में होशियारपुर में समाप्त हुआ।
मालेर कोटला में अन्य स्थानों की अपेक्षा आपस में अधिक संघर्ष रहा, मगर अब कुछ शांति है।
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