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अध्याय ५६
"सफलता की शुभ घड़ी"
यह एक निर्धारित तथ्य है कि जो बात जिस समय जिस स्थान और जिस रूप में होनी होती है वह उसी समय उसी स्थान और उसी रूप में होकर रहती है । श्री हठीसिंह की दीक्षा का निश्चय दृष्टि से जो समय नियत था उसमें अभी थोड़ी देरी थी। जब वह निकट आया तो सभी विघ्न बाधायें दूर भाग गई और उसी स्थान में उसी रूप में वह सम्पन्न हुई । इसीलिये दार्शनिकों ने कार्य निष्पत्ति में अन्य सापेक्षित सामग्री से समय को अधिक प्राधान्य दिया है ।
बात यूं बनी कि जिस रोज महाराज जी साहब ने बिना दीक्षा दिये मालेरकोटला से बिहार कर दिया और सभी श्रावक लोग नितान्त उदास मन से उन्हें बिदा करके लौटे तो एक श्रावक-जोकि नवाब साहब का खजाञ्ची था-ने नवाब साहब से जाकर अर्ज की कि हजूरवाला ! कहते हुए तो भय लगता है मगर कहे बिना रहा भी नहीं जाता, आपने हमारे दीक्षा महोत्सव को बिना किसी कारण के बन्द करा दिया जिससे हम लोगों के हृदय को जो ठेस पहुँची है उसका हम वर्णन नहीं कर सकते । आज हमारे गुरु महाराज भी चले गये । हमारी सभी तैयारी धरी की धरी रह गई । हजूर को ऐसा करना मुनासिब नहीं था।
नवाबसाहब-हैं गुरुजी चले गये ! यदि ऐसा है तो जाओ गुरुजी को पीछे ले आओ। मैं अभी हुक्म कराये देता हूँ, और मेरा यह हुक्म अब सुनिश्चित होगा इसे किसी हालत में भी बदला नहीं जायगा ।
खजाची -हजूर हमारे कहने से तो अब वे पीछे नहीं लौटेंगे।
नवाबसाहब-तो अच्छा हमारा सवार लेजाओ और उनसे जाकर अर्ज करो कि नवाब साहब ने आपको सलाम बोला है और वापिस लौट आने की अर्ज की है । जाओ देरी मत करो। और साथ में मेरी तर्फ से यह भी अर्ज करना कि यदि आप वापिस नहीं लौटेंगे तो मुझे बहुत दुःख होगा।
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