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________________ अध्याय ५५ "श्रेयांसि बहुविघ्नानि" यह बात अकसर देखने में आती है कि जब किसी शुभ कार्य का प्रारम्भ किया जाय तो उसमें कोई न कोई विघ्न अवश्य आखड़ा होता है । मन्दिराम्नाय वालों ने दीक्षा सम्बन्धी जलूस निकालने आदि की सब प्राज्ञा नवाब साहब से लेली और अमुक दिन जलूस निकलेगा तथा दीक्षा सम्पन्न होगी, इस निश्चित कार्यक्रम का जब वहां के ढंढक भाइयों को पता चला तो उन्होंने इसका पूरे जोर शोर से विरोध किया और नवाब साइब के पास जाकर उनको उलटा सीधा समझाकर उनका पहला हुक्म वापस करवा दिया। इधर जब मन्दिराम्नाय वालों को इसका पता चलातो उन्होंने नवाब साहब के पास अर्ज करके फिर जलूस निकालने की आज्ञा प्राप्त करली । नवाब साहब कुछ ऐसे अस्थिर विचार का था कि उसको अपने दिये गये हुक्म को बदलते देरी नहीं लगती थी। इसके अलावा दोनों ही पक्ष के लोगों का नवाब साहब से मेल था । जो कोई उनके पास जाता और समझाता वे उसीको हां कर देते परिणामस्वरूप उनके दुबारा दिये हुक्म को ढूंढियों ने फिर रद्द करा दिया और मनाही का हुक्म लेआये। नवाब साहब के इस व्यवहार को अनुचित समझकर महाराज श्री आनन्दविजय जी ने वहां पर दीक्षा देने का विचार छोड़ वहां से विहार कर दिया। इससे वहां के श्रावक वर्ग के हृदय को बहुत आवात पहुंचा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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