SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ५३ "श्री हंसविजयजी के पिता का आगमन" -*:उक्त तीनों महानुभावों को साधु धर्म में दीक्षित करने के बाद महाराज श्री आनन्द विजयजी अम्बाले से विहार करके जब होशयारपुर में पधारे तो पुत्र के साधु होजाने की खबर पाते ही श्री हंसविजयजी के पिता श्री जगजीवन दास होशयारपुर में आये । यद्यपि वे धर्मात्मा व्यक्ति थे । जैन गृहस्थोचित कर्तव्य का बड़ी सावधानी से पालन करते थे। प्रातःकाल उठकर सामायिक व प्रतिक्रमण करना तदनन्तर मन्दिर में जाकर देवपूजन करना पश्चात् गुरुजनों का दर्शन और उपदेश सुनना तथा आहार के समय साधुओं को आहार पानी की विनति करना और उनको आहार पानी देकर पीछे भोजन करना और सन्ध्या के समय उपाश्रय में जाकर गुरुजनों के साथ प्रतिक्रमण करना आदि जितना भी गृहस्थ का शास्त्र विहित आचार है उसका यथाशक्ति सम्यक्तया पालन करते थे। इसके अतिरिक्त साधु धर्म के महत्व को भी खूब समझते थे, परन्तु इतने पर भी वे पुत्र के प्रति होने वाले मोह से पराजित थे। उन्होंने मोह के वशीभूत होकर दीक्षित हुए २ पुत्र को वापिस घर लेजाने की भरसक चेष्टा की जो कि उचित नहीं थी उन्होंने अपने चिरंजीवी को बहुत समझाया और गुरुजनों को भी कहा परन्तु जब वे इसमें विफल हुए तो श्री हंसविजयजी को सम्बोधित करते हुए बोले देखो बेटा ! तुमने संयम ग्रहण किया है इसको हर प्रकार से सुरक्षित रखने का यत्न करना, तुम एक प्रतिष्ठित कुल में पैदा हुए हो उस कुल की मर्यादा को ध्यान में रखते हुए अपने संयम में किसी प्रकार की त्रुटि नहीं आने देना, मैं संयम का विरोधी नहीं किन्तु उसकी कठिनाइयों की ओर ध्यान देते हुए मुझे भय लगता है । अच्छा, गुरुदेव की छत्र छाया तले रहते हुए तुम इसमें सफल निवड़ोगे ऐसी मुझे पूर्ण आशा है । फिर गुरुमहाराज श्री आनन्द विजयजी को सम्बोधित करते हुए बोले-गुरुमहाराज ! मैंने पुत्र मोह के वशीभूत होकर कदाचित किसी शब्द के द्वारा आपका अविनय किया हो तो उसकी मैं आप श्री से क्षमा मांगता हूँ यह अब आपके सुपुर्द है, आप ही अब इसके संरक्षक हैं और आपकी संरक्षता में यह अपना आत्म विकास करे यही मेरी हार्दिक इच्छा है । इतना कहकर विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार के बाद वे वहां से विदा हुए गुरुजनों का आशीर्वाद मूलक धर्म लाभ प्राप्त करके । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy