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अध्याय ५१
"प्रायश्चित के लिये आवेदन "
यद्यपि इस अपवाद सेवन में मेरी किसी प्रकार की मानसिक या वाचिक प्रेरणा या अनुमोदना नहीं, इसलिये मैं निर्दोष हूँ, तथापि गुरुजनों से इसका निवेदन कर देना भी आवश्यक प्रतीत होता है, इस मानसिक सद्भावना से प्रेरित होकर आपने अहमदाबाद में विराजमान अपने बड़े गुरुभाई गणि श्री मुक्तिविजय - श्री मूलचन्दजी महाराज को एक पत्र लिखा, उसमें अथ से इति तक सारा वृत्तान्त लिखने के बाद आपने प्रायश्चित के लिये निवेदन किया और कहा कि आप जो प्रायश्चित उचित समझें लिख दें मैं उसे सहर्ष आचरण में लाऊंगा ।
आप के इस पत्र के उत्तर में गणि श्री मुक्तिविजय - श्री मूलचन्दजी महाराज का जो पत्र आया वह तो उपलब्ध नहीं हो सका परन्तु आप श्री का बतलाया और स्मरण में रहा हुआ सारांश इस प्रकार है
"पत्र तुम्हारा मिला, समाचार मालूम हुआ, जिस परिस्थिति का तुमने उल्लेख किया है उस में तो प्रायश्चितका प्रश्नही उपस्थित नहीं होता । शास्त्रीय मर्यादा का ध्यानपूर्वक अवलोकन करने से इस विषय तुम निर्दोष प्रमाणित होते हो फिर प्रायश्चित कैसा ? हां लौकिक, मर्यादा को ध्यान में रखते। हुए केवल व्यवहार शुद्धि के लिये पत्र लिखित प्रायश्चित करलेने में भी कोई हरकत नहीं, प्रत्युत लाभ ही है। सुखसाता का समाचार देते रहना ।” आपने भी पत्र में दिये गये आदेश का पूरी श्रद्धा से पालन किया ।
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