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अस्त उदय की रेखा
आपको लुधियाने से यहां अम्बाले में ले आये हैं। इस कार्य का सारा उत्तरदायित्व हमारे ऊपर है आप सर्वथा निर्दोष हैं । आपके सुरक्षित रहने पर धर्म सुरक्षित है और धर्म की रक्षा से हम सब की रक्षा है, इसी दृष्टि को सम्मुख रखकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने अपने निर्ग्रन्थ प्रवचन में उत्सर्ग और अपवाद मार्ग को प्रतिष्ठित किया है अतः हमारा यह कर्तव्य अशास्त्रीय भी नहीं । कदाचित् किसी अंश में हो भी तो भी आप तो निर्दोष ही हैं। क्योंकि इस व्यापार में न तो आपकी प्रेरणा है और न अनुमोदना । हमारी दृष्टि में तो आप इस विषय में पत्र पलाश की तरह अलिप्त ही हैं ।
श्रावकवर्ग के इस कथन को सुनकर आपने फर्माया कि अच्छा भाई ! तुम्हारी तुम जानो मैं तो तुम्हारे इस कर्तव्य की न तो अनुमोदना ही करता हूँ और न भर्त्सना ! मेरा उत्कृष्ट साधु धर्म मुझे अनुमोदना की आज्ञा नहीं देता, और तुम्हारा किसी प्रकार के ऐहिक प्रलोभन से अछूता सद्भावपूर्ण व्यवहार किसी प्रकार की भर्त्सना के लिये भी उद्यत् नहीं होने देता इसलिये मैं तो इस विषय में मौन की ही शरण लेनी अधिक उचित समझता हूँ इतना कहकर आप चुप कर गये मन में प्रायश्चित की भावना को लेकर । अनुमान दो मास के बाद महाराज श्री आनन्द विजयजी को स्वास्थ्य का लाभ हुआ अर्थात् अस्त में उदय की रेखा निकली और उसने फिर से अपना प्रकाश देना आरम्भ किया ।
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