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________________ अध्याय ५० "अस्त में उदय की रेखा" जिस समय महाराज श्री आनन्दविजयजी ने लुधियाने को बिहार किया उन दिनों पंजाब के कितने ही शहरों में ज्वर की बीमारी का बहुत प्रकोप था जिनमें लुधियाना में तो और भी जोरों पर था। मंगसर का महीना था उसमें आपके शिष्य मुनि श्री रत्नविजय-श्री हाकमरायजी का इसी ज्वर की बीमारी के प्रकोप से स्वर्गवास होगया। उनके स्वर्ग सिधारने के दो चार दिन बाद ही आपको ज्वर आने लगा और थोड़े ही दिनों में ज्वर का प्रकोप इतना बढ़ा कि आप बेहोश होगये । श्रापकी निरन्तर बढ़ती हुई बेहोशी को देख कर लुधियाने का श्री संघ एक दम चिन्तातुर हो उठा । अब क्या करना चाहिये क्या न करना चाहिये इस विचार में पड़ा हुआ किं कर्तव्य विमूढ़ सा बन गया। कई तरह के उपचार किये मगर बेहोशी दूर नहीं हुई। इतने में मालेर कोटला निवासी लाला कंवरसेनजी वहां श्रागये । लालाजी जहां आपके परमभक्त थे वहां आपके सम्पर्क में आने से जैनधर्म के शास्त्रविहित उत्सर्ग और अपवाद मार्ग के सिद्धान्त के भी अच्छे जानकार थे। उन्होंने आते ही महाराज श्री की चिन्ताजनक दशा को देखकर और लुधियाने के जलवायु को उनके अनुपयुक्त अनुभव करके वहां के मुख्य श्रावक लाला गोपीमल और नाज़र प्रभदयाल आदि से कहा कि यह समय अधिक विचार करने का नहीं आप इन्हें जल्दी से जल्दी अम्बाला ले जाने का प्रबन्ध करें, वहां का जलवायु इस समय अन्य शहरों से बहुत अच्छा है वहां जाते ही आप ठीक होजावेंगे, लालाजी के जोर देने पर आपको अम्बाले में ले जाया गया और वहां जाने के दो दिन बाद आपके ज्वर का वेग बहुत कम होगया और आप होश में आगये । होश में आने के बाद जब आपने अपने को अम्बाले के जैन उपाश्रय में पड़े हुए देखा तो आप एकदम आश्चर्य चकित होकर पास में बैठे हुए श्रावकों से कहने लगे कि यह क्या बात है, मैं कोई स्वप्न देख रहा हूँ या मुझे मतिविभ्रम हो रहा है । मैं तो लुधियाने के उपाश्रय में था यह तो अम्बाले का उपाश्रय है । कुछ समझ में नहीं आता क्या बात है ? तब पास में बैठे हुए लाला कंवरसेन आदि श्रावकों ने हाथ जोड़कर कहा कि-महाराज जी साहब ! आप इस विषय में किसी प्रकार की भी चिन्ता न करें हम लोगों को सबसे अधिक प्रिय आपश्री का जीवन है, उसी के लिये हम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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