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________________ पंडित श्रद्धाराम से भेट श्री श्रानन्दविजयजी हंसते हंसते-अच्छा ! पंडितजी आप यदि आज के मिलाप को पूर्व भव के संयोग विशेष का फल मानते हैं तब तो आपके कथन से शरीर व्यतिरिक्त आत्मा की सत्ता स्वयमेव सिद्ध होगयी और परलोक का अस्तित्त्व भी प्रमाणित हो गया । अस्तु अब आप आराम करें ! सज्जनों में परस्पर वाद होता है विवाद नहीं । वाद में तत्त्व निर्णय को प्राधान्य है और विवाद जय पराजय की भावना से होता है । आप स्वयं विद्वान् हैं आपसे अधिक कहना अनावश्यक है किन्तु सत्य का गवेषण और अनुसरण ही विशुद्ध बुद्धि का धर्म है और होना चाहिये इस दृष्टि को लक्ष्य में रखकर यदि किसी पदार्थ का स्वरूप निश्चय किया जाय तो वह परिमार्जित ही होगा, आप जैसे प्रतिभाशाली के लिये इतना संकेत ही काफी है। इस प्रकार प्रेमालाप करते हुए दोनों महानुभाव अलग हुए पंडितजी ने धन्यवाद पूर्वक आपके कथन का स्वागत किया और फिर भी कभी दर्शन देने की प्रार्थना की। २१६ अगले दिन महाराज श्री आनन्द विजयजी ने लुधियाने को बिहार कर दिया और पंडितजी श्रापको सप्रेम कुछ दूर तक छोड़ने आये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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