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नवयुग निर्माता
महाराज श्री आनन्द विजयजी ने भी पंडितजी के शब्दों का समुचित उत्तर दिया। इस प्रकार शिष्टाचार हो जाने के बाद, महाराज श्री आनन्द विजयजी की दृष्टि घर के एक कोने की तर्फ गई जहां एक छोटासा मन्दिर था और उसमें ठाकुरजी विराजमान किये हुए थे। तब आश्चर्य चकित होकर आपने पंडितजी से पूछा-पंडितजी ! यह क्या माजरा है। आपके शिष्य ला. रामदित्तामल ने आपके विषय में जो कुछ बतलाया और आपके लिखे हुए “सत्यामृत प्रवाह" नाम के पुस्तक को देखने से जो कुछ अनुभव में आया वह तो कुछ और है परन्तु यहां प्रत्यक्ष में जो कुछ देखने में आया वह कुछ और है । “सत्यामृत प्रवाह" में तो श्राप मूर्तिवाद का प्रतिवाद कर रहे हैं और विपरीत इसके घर में आपने ठाकुरजी का मन्दिर बना रक्खा है ऐसा क्यों ? कम से कम मेरे जैसे आगन्तुक व्यक्ति के लिये यह समझना अत्यन्त कठिन है कि श्राप प्रभुमूर्ति के उपासक हैं या उत्थापक ?
पंडितजी-(कुछ लज्जित से हुए २) महाराज ! आप जानते हैं यह दुनिया दोरंगी है, इसमें एक रूप से रहना अत्यन्त कठिन है । ठाकुर पूजा के प्रताप से आजीविका बहुत अच्छी तरह से चल रही है और प्रतिष्ठा भी प्राप्त है, परन्तु यह सब ऊपर का दिखावा है, अन्दर से तो मैं कुछ और ही हूँ। इसलिये मैं मूर्तिपूजक भी हूँ और उत्थापक भी। श्री आनन्दविजयजी-पंडितजी तब तो
"अन्तः शाक्ता बहिः शैवाः,सभामध्ये तु वैष्णवाः। नाना रूपधराः कौला विचरन्तीह भूतले ॥"
किसी कौल मतानुयायी व्यक्ति के विषय में कही गई कवि की यह उपहास्योक्ति आप पर भी लागु हो रही है।
पंडित श्रद्धारामजी-महाराज ! जो कुछ भी हो मैंने अपना सच्चा हार्द आपके पास खोल दिया है। आप महात्मा और विद्वान हैं आपसे मैं किसी विषय को लेकर वाद विवाद नहीं करना चाहता वाद विवाद परस्पर के प्रेम का विरोधी है इसलिये अपनी ओर से ऐसी कोई भी चेषा नहीं होनी चाहिये जो कि परस्पर के प्रेम या सदभाव में विघ्न उपस्थित करने वाली प्रमाणित हो । मेरे और आपके मिलाप में किसी पूर्वले पुण्य संयोग को ही कारण मानना चाहिये, अपने दोनों की इस समय जो सप्रेम भेट हुई है उसको चिरस्मरणीय बनाये रखने के लिये किसी प्रकार के वाद विवाद को स्थान नहीं मिलना चाहिये ।
अन्दर शाक्तिक-शक्ति के उपासक, बाहर शैव और सभा में परम वैष्णव, इस प्रकार कौल मतानुयायी नाना प्रकार के रूपों को धारण करते हुए इस पृथिवी पर विचर रहे हैं।
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