SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय ४८ "संगति का फल " -2222 नीतिकारों का कथन है- "सतांसंगो हि भेषजम्" अर्थात श्रेष्ठ पुरुषों की संगति उत्तम औषधि है । जैसे उत्तम औषधि के व्यवहार से रोग दूर हो जाता है उसी प्रकार उत्तम पुरुषों के संसर्ग में आने से मनुष्य का विपरीत धारणा रूप आन्तरिक रोग दूर हो जाता है । Jain Education International लुधियाने के चातुर्मास में आपसी का धर्म प्रवचन सुनने के लिये जैनों के अतिरिक्त जैनेतर लोग भी पर्याप्त संख्या में उपस्थित होते थे । उनमें " रामदित्ता मल" नाम के एक क्षत्रिय पुरुष भी थे। जो कि फिलौर निवासी पंडित श्रद्धारामजी के संसर्ग में आने से अर्द्धनास्तिक से बने हुए थे । परन्तु आपके सत्संग में आने से उनकी नास्तिकता आस्तिक भाव में बदल गई, अर्थात् वे पूरे २ आस्तिक बन गए । महाराज श्री आनन्दविजयजी की ओर से प्राप्त होने वाली आस्तिक विचारों की पुनीत वारिधारा ने श्री रामदित्तामल के मलयुक्त अन्तःकरण को धोकर साफ और स्वच्छ बना दिया । तथा स्वच्छ दर्पण में प्रतिबिम्बित मुख की भांति उसके विशुद्ध हृदय में स्तिक भाव स्फुट रूप से झलकने लगा । तब आपके चरणों में मस्तक रखते हुए श्री रामदिनामल ने कहा- गुरुदेव ! मेरे अज्ञान मूलक संशयों को दूर करके आपने मुझे धर्म सम्बन्धी जो अलौकिक प्रकाश दिया है उसके लिये मैं आपका बहुत २ कृतज्ञ हूँ, धार्मिक सद्विचारणा की दृष्टि से तो मुझे आज मानव भव की प्राप्ति हुई, मैं मानता हूँ । तदनन्तर महाराज श्री आनन्द विजयजी से समझे हुए कुछ प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिये श्री रामदित्तामल जी पंडित श्रद्धारामजी के पास फिलौर गये । उनके प्रश्नों को सुनकर पंडित श्रद्धारामजी कुछ चकित से रद्दगये, उनको पहले रामदित्तामल और अब के रामदित्तामल में बहुत अन्तर प्रतीत हुआ । तब, समय के जानकार पंडितजी ने झट से पूछा कि तुमने ये प्रश्न कहां से सीखे ? रामदित्तामल - मेरे शहर लुधियाने में मुनि श्री आनन्द विजय - श्री आत्माराम नाम के एक विद्वान् जैन साधु पधारे हुए हैं, उनके सत्संग से प्राप्त हुए अनुभव के आधार पर मैं ये प्रश्न पूछ रहा हूँ ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy