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________________ अध्याय ४७ "शिष्य परिकार में वृद्धि" अम्बाले में कुछ दिन निवास करने के बाद आप लुधियाने पधारे। वहां पर आपको चार शिष्यों की उपलब्धि हुई । (१) फीरोजपुर जिला के मुदकी ग्राम वास्तव्य श्री दुनीचन्दजी (२) होशयारपुर निवासी श्री उत्तमचन्दजी (३) पाली-मारवाड़ के हर्षचन्दजी और (४) जेजों के रहने वाले श्री मोतीचन्दजी, ये चारों महानुभाव ओसवाल वंश के थे और वैराग्यगर्भित मन से साधु धर्म की दीक्षा ग्रहण करने के लिये आपके पास आये थे। आपने भी इनकी इच्छा के अनुसार मुनिधर्म में दीक्षित करके इनके सांसारिक नामों को बदलकर क्रमशः नीचे लिखे नाम रक्खे । यथा (१) श्री विनयविजय (२) श्री कल्याणविजय (३) श्री सुमतिविजय (४) श्री मोतीविजय । ये सब आपके मुख्य शिष्य श्री लक्ष्मीविजय-( श्री विश्नचन्दजी ) के शिष्य बनाये गये। यहां से आपके शिष्यपरिवार में प्रगति आने लगी और उससे वीर भाषित प्राचीन धर्म की प्रतिष्ठा में वृद्धि होने लगी। उस समय चातुर्मास के प्रारम्भ होने में बहुत थोड़े दिन रहते थे इसलिये १९३५ का चातुर्मास आपने सब साधुओं के साथ लुधियाने में ही किया। Cin Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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