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________________ - - अहमदाबाद का चतुर्मास १६६ कथन का सार मात्र इतना ही था कि आजकल कोई भी व्यक्ति शास्त्र में लिखे मुताबिक साधु और श्रावक धर्म का पालन नहीं कर सकता, इसलिये न कोई यथार्थ रूप में साधु है और न श्रावक । तीन दिन के बाद जब श्री आत्मारामजी की बारी आई तब आपने श्री शांतिसागर के मन्तव्य को शास्त्र विरुद्ध ठहराते हुए कहा कि एकान्त निश्चय और एकान्त व्यवहार ये दोनों ही मन्तव्य शास्त्र बाह्य होने से त्याज्य हैं। जैन सिद्धान्त में निश्चय और व्यवहार दोनों को ही सापेक्ष्य स्थान प्राप्त है इसलिये केवल निश्चय को मान कर व्यवहार का अपलाप करना सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है और इस मान्यता में एकान्तवाद का समर्थन न होने से यह सम्यग् दर्शन का बाधक मिथ्यात्व का पोषक हो जाता है । और इसके अतिरिक्त श्री शान्तिसागरजी ने जो यह कहा है कि आज कल कोई भी शास्त्र में लिखे मुताबिक साधु धर्म और श्रावक धर्म को नहीं पाल • सकता, वह ठीक नहीं है। आज भी शास्त्रानुसार निश्चय और व्यवहार तथा उत्सर्ग और अपवाद को लेकर समयानुसार साधु धर्म का पालन किया जा सकता है । तथा जिस कोरे अध्यात्मवाद की प्ररूपणा करते हुए उन्होंने साधु धर्म का स्वरूप बतलाया है उस के अनुसार यदि वह चल कर दिखावें तो मैं उनका शिष्य बनने को तैयार हूँ । अन्यथा द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अनुसार उत्सर्ग और अपवाद के आश्रित इस समय जैसा साधु धर्म पालना चाहिये वैसा मैं पालकर दिखाता हूँ और यथाशक्ति नियमानुसार अब भी पाल रहा हूँ। यदि शांतिसागरजी के कथनानुसार साधुता का अभाव मानलें तबतो श्री भगवती सूत्र में भगवान् के शासन को २१००० वर्ष तक चलते रहने का जो उल्लेख है उसकी उपपत्ति कैसे होगी ? अभी तो २५०० वर्ष भी पूरे नहीं हो पाये । इसलिए ऐसा कहना भगवान के कथन का अपलाप करना है। अतः शास्त्रानुसार स्वयं आचरण करना और दूसरों को उपदेश देना तथा शास्त्र विरुद्ध आचरण से पीछे हटना यही साधु जीवन का आदर्श है और होना चाहिये । महाराज श्री आत्माराम जी के प्रवचन से उपस्थित जनता बहुत प्रभावित हुई । उसके हृदय से शांतिसागरजी का रहासहा प्रभाव भी जाता रहा । बहुत से लोगों ने तो सभा में ही उनके विचारों को तिलांजलि देकर अपने मनका बोझ हलका कर दिया और बहुतों ने बाद में श्री आत्मारामजी के पास आकर उनसे अपना पीछा छुड़ाते हुए शुद्ध श्रद्धान को स्वीकार किया । एवं कुछ लोगों ने श्री आत्मारामजी से कहा कि महाराज ! शांतिसागर के उपदेश से उन्मार्गगामी बनकर हमने बहुत अपराध किया है, उनके कथन पर विश्वास करते हुए जिनमन्दिरों और उनमें विराजमान जिन प्रतिमाओं को सुविहित आचार्यों की प्रतिष्ठित की हुई न मानकर उनके दर्शनों से इतने पराङ्मुख हुए कि उनके पास से निकलते समय मुँह पर कपड़ा दे लेते थे। अाज अाप श्री के मदुपदेश से हमारा यह अज्ञानान्धकार दूर हुआ और हमारे विवेक चक्षु खुलगये जिसके लिये हम आप श्री के बहुत २ कृतज्ञ हैं, आप हमें उक्त पाप की आलोचना-प्रायश्चित देकर हमारी श्रात्मा को पाप के इस बोझ से हलका करने का अनुग्रह करें । अन्य कई एक श्रावक कहने लगे कि सचतो यह है कि शांतिसागर के उपदेश दावानल से परम सन्ताप को प्राप्त हुए जैन समाज को महाराज श्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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