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________________ १६८ नवयुग निर्माता श्री बुद्धिविजयजी - (स्वगत) आनन्द विजय से शास्त्रार्थ, इसका अर्थ है सिंह से स्याल का युद्ध कितनी उपहास्यास्पद बात है ! अस्तु मुझे इसमें हस्तक्षेप करने की क्या आवश्यकता है जनता स्वयं ही निर्णय करलेगी, पहले भी तो उसने निर्णय किया ही है । (प्रकट) आप खुशी से शास्त्रार्थ करें, मैं न तो किसी को इन्कार करता हूँ और न इसमें हस्तक्षेप करता हूँ ? श्री शांतिसागर - महाराज ! मैं यह चाहता हूँ कि हम दोनों के शास्त्रार्थ में मध्यस्थ आप बनें ? [ शांतिसागरजी को यह निश्चय था कि श्री बुद्धिविजयजी महाराज किसी प्रकार के वाद विवाद में भाग नहीं लेते, अतः वे मेरे इस प्रस्ताव को भी स्वीकार नहीं करेंगे, तब मुझे यह कहने का अवसर मिलजायगा ि कि मैं तो आत्मारामजी से शास्त्रार्थ करने को तैय्यार था और उसी उद्देश्य से उनके गुरु श्री बुद्धिविजयजी के पास गया तथा उन्हीं को मध्यस्थ बनने का अनुरोध किया परन्तु वे नहीं माने, इससे तो यही फलित होगा कि उनमें शास्त्रार्थ करने की शक्ति नहीं है और मेरे सत्य विचारों का वे प्रतिवाद भी नहीं कर सकते ] श्री बुद्धिविजयजी - न भाई ! मैं तो किसी के भी वादविवाद में नहीं पड़ता और न मुझे इस प्रकार का वादविवाद पसंद ही है इसलिये तुम दोनों ही आपस में निपट लें मुझे बीच में लाने की आवश्यकता नहीं ! जब इस बात का पता श्री आत्माराम जी को लगा और उन्होंने सारी परिस्थिति का पूरा अध्ययन किया तब आपने श्री शांतिसागर के अंतरंग आशय को भांप लिया और उनके इस मनोरथ को विफल बनाने के लिये वे अपने गुरु महाराज श्री बुद्धिविजयजी से बोले - महाराज ! आप इससे क्यों घबराते हैं ? यदि श्री शांतिसागरजी की यही इच्छा है तो उसे पूरी होने दीजिये ? आप सभा में पधारें आपके एक तर्फ मैं बैठूंगा और एक तर्फ शांतिसागरजी बैठें। प्रथम लगातार तीन दिन शांतिसागरजी का भाषण हो और बाद में तीन मैं व्याख्यान करूंगा, दोनों के कथन को सभा में उपस्थित सब श्रोता लोग सुनेंगे और सुनकर स्वयं निर्णय करलेंगे ऐसी व्यवस्था में आपको क्या आपत्ति है ? श्री बुद्धिविजयजी - कुछ भी नहीं । श्री आत्मारामजी - तब आप शांतिसागरजी को बुलाकर दो चार मुख्य श्रावकों के सामने उनसे वार्ता - लाप करके दिन का निश्चय करलें ! इसके उत्तर में "बहुत अच्छा" कह कर महाराज श्री बुद्धिविजयजी ने शांतिसागरजी को बुलाकर उनसे बात चीत करके शास्त्रार्थ के लिए समय और दिन आदि का निश्चय कर लिया । निश्चित हुए दिवस में समय से पहले ही जनता से व्याख्यान सभा का स्थान खचाखच भर गया, महाराज श्री बुद्धिविजयजी के साथ श्री आत्मारामजी अपने शिष्य परिवार के साथ पधारे और उधर से श्री शांतिसागर भी अपने कतिपय अनुयाइयों के साथ व्याख्यान सभा में आपहुंचे । शांतिपूर्वक सबके बैठ जाने के बाद श्री शांतिसागरजी ने अपना भाषण आरम्भ किया जोकि बराबर घंटा सवा घंटा चालु रहा, इसी प्रकार तीन दिन के व्याख्यान में आपने अपने एकान्त निश्चयवाद को सिद्ध करने का यत्न किया । आपके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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