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अध्याय ४२
" अहमदाबाद का चतुर्मास "
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विक्रम सम्बत् १९३२ का वर्ष, जैन परम्परा में एक उल्लेखनीय स्थान रखता है । इस वर्ष पंजाब के एक वीर पुरुष ने पंजाब से निर्वासित हुई जैन श्री को वहां पर पुनः सिंहासनारूढ़ करने के लिये वीरभाषित साधु वेष को धारण करके कार्य क्षेत्र में उतरने का दृढ़संकल्प किया और तब तक विश्राम नहीं लिया जब तक कि वह अनुरूप सिंहासन पर विराजमान नहीं हो गई। नगर सेठ और दूसरे सद् गृहस्थों की सानुरोध प्रार्थना से सम्बत् १९३२ का चतुर्मास श्री आत्मारामजी ने अपने समस्त साधुओं के साथ अहमदाबाद में ही किया । यह उनका पहला चतुर्मास था जो कि श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की परम्परा के साधु वेष में सुसज्जित होने के बाद उन्होंने अपने दीक्षा स्थान में किया । इम चतुर्मास की उल्लेख करने योग्य बात श्री शान्तिसागर से धर्म चर्चा की है। जब श्री आत्मारामजी पंजाब से विहार करके पहले यहां पधारे थे उस समय भी श्री शान्तिसागर से आपका वाद विवाद हुआ था जिसके परिणाम स्वरूप अहमदाबाद में शांतिसागर के पक्ष को बहुत धक्का पहुंचा था, परन्तु अब की बार तो उसका रहा सहा प्रभाव भी जाता रहा ।
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प्रतिदिन के व्याख्यान में श्री आत्माराम - श्री आनन्द विजयजी ने श्री हरिभद्रसूरि की व्याख्या सहित आवश्यक सूत्र का वाचन आरम्भ किया। आपकी अद्भुत व्याख्यान शैली से प्रभावित हुई जनता में आपके प्रति इतना आकर्षण बढ़ गया कि व्याख्यान सभा के विशाल भवन में कहीं तिल धरने को भी जगह न रहती । और शान्तिसागर के व्याख्यान में इने गिने व्यक्तियों के सिवा और कोई न जाता । इसमें श्री शांतिसागरजी के मन में ईर्षा की अग्नि प्रज्वलित हो उठी और वे उसके उग्रताप को सहन न करते! हुए श्री बुद्धिविजय - श्री बूटेरायजी के पास पहुँचे और बोले - महाराज ! मैं आपके शिष्य आत्माराम - नहीं २ आनन्द विजयजी से व्याख्यान सभा में धर्म चर्चा करने के विचार से आपके पास आया हूँ आप मेरा उनसे शास्त्रार्थ करवाई |
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