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अध्याय ४१
"मार्मिक सदुपदेश"
आज का यह दीक्षा समारोह भारतीय जैन प्रजा और खास कर पंजाब की जैन प्रजा के लिये शुभ सूचना रूप था; जैन धर्म की तपगच्छ परम्परा के परम तपस्वी वयोवृद्ध आदर्श मुनिराज श्री बुद्धिविजयजी ने वासक्षेप देने के बाद श्री आत्मारामजी को सम्बोधित करते हुए कहा-प्रिय आनन्द विजय ! तुमारी विद्वत्ता, योग्यता और धर्म प्रियता पर जैन समाज जितना भी गर्व करे उतना कम है ! तुमने पंजाब देश में जिस धार्मिक क्रान्ति को जन्म दिया है उससे मेरी आत्मा को बहुत सन्तोष मिला है । वहां ढूंढ़क पथ के प्रभाव से अपने पवित्र जैन धर्म की जो अवहेलना हुई और हो रही है, उसका स्मरण आते ही आत्मा अशान्त हो उठती है। परन्तु अब वह समय आगया है जब कि तुमारे जैसे प्रभावशाली पुरुष के द्वारा वहां सनातन जैन धर्म को फिर से असाधारण प्रतिष्ठा प्राप्त होगी, और स्थान २ पर गगन चुम्बी विशाल जिन भवनों पर लहरानेवाली ध्वजायें उसके प्राचीन वैभव को प्रमाणित करेंगी । इसलिये तुम लोग अब पहले से भी अधिक उत्साह और परिश्रम से वहां धार्मिक जागृति फैलाने का यत्न करो ताकि मैं अपने जीवन में ही यह सब कुछ देख सकूँ । तुमारी सत्यनिष्ठा और आत्मविश्वास तुमारी सफलता के लिये पर्याप्त हैं । तिस पर मेरा आशीर्वाद तुम्हें सोने पर सुहागे का काम देगा। जाओ पंजाब को संभालो, तुम्हारा कार्यक्षेत्र बहुत विस्तृत है, इसमें तुम्हारे सिवाय दूसरे को सफलता मिलनी कठिन ही नहीं किन्तु असम्भव है।
महाराज श्री बुद्धि विजयजी के इस मर्म स्पर्शी सदुपदेश ने जहां अन्य लोगों के हृदय को हिला दिया। वहां श्री आत्मारामजी का हृदय उत्साह और हर्ष से भरपूर हो गया और उन्हें पंजाब की उर्वरा भूमि में बोया हुआ धार्मिक क्रान्ति का बीज शीघ्र से शीघ्र अंकुरित पल्लवित और पुष्पित होकर फल देता हुआ दिखाई देने लगा। तदनन्तर आपने गुरुदेव के चरणों को स्पर्श करते हुए कहा कि गुरुदेव ! आप निश्चित रहें, जबकि आपश्री का अमोघ आशीर्वाद मेरे साथ है तो फिर सफलता में सन्देह कैसा ?
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