________________
--
-
-
-
-
--
सद्गुरु की शोध में
१६३
गुरुधारण सम्बन्धी किये गये विचार को कार्यान्वित करने के लिये दूसरे दिन अपने शिष्य परिवार को साथ लेकर महाराज श्री आत्मारामजी ने श्री बूटेराय-बुद्धिविजयजी महाराज के स्थान की ओर प्रस्थान किया । इधर महाराज श्री बुद्धिविजयजी को किसी श्रावक ने आकर कहा कि महाराज ! मुनि श्री आत्मारामजी आपके दर्शनों को यहां पधार रहे हैं उनका सार। शिष्य परिवार भी साथ में हैं।
श्री बुद्धिविजयजी ने स्मित मुख से श्रावक को कहा बड़ी खुशी से पधारें।
इतने में महाराज श्री आत्मारामजी भो अपने शिष्य परिवार सहित वहां पहुंच गये । सबने आपको विधि पूर्वक वन्दना की और आपके सम्मुख ही यथा स्थान बैठ गये । आपने भी सबको सुखसाता पूछी और सप्रेम सबका स्वागत किया।
श्री आत्मारामजी-महाराज ! वर्षों से मैं जिस गुरु रत्न की शोध में था वह मुझे मिल गया अब आप कृपा करके मुझे अपनाइये और शुद्ध सनातन जैन धर्म की दीक्षा से मेरे जीवन को सफल बनाने की कृपा कीजिये । अब तो मैं आपके चरणों में आत्मनिवेदन करने की भावना से ही इन साधुओं के साथ आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ।
श्री बुद्धिविजयजी ने आपकी बात को सहर्ष स्वीकार किया और उसी समय एक सुयोग्य ज्योतिषीजी के द्वारा आपकी दीक्षा का मुहूर्त निश्चय कर लिया गया।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org