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________________ अध्याय ३६ श्री शान्तिसागर का पराजय प्राभाविक पुरुष जहां कहीं भी जावें उनका पुण्य उनके साथ होता है, उसके बल पर ही संसार सामने है। महाराज श्री आत्मारामजी को अहमदाबाद जैसे अज्ञात प्रदेश में इतना सम्मान प्राप्त होना उनके पुण्य प्रचय को ही आभारी है । पुण्यशाली महापुरुष का व्यक्तित्व उसकी गुणगरिमा से इतना ऊंचा हो जाता है कि उसे ऐहिक प्रलोभन स्पर्श तक भी नहीं करपाते और सांसारिक वैभव से भरपूर बड़े से बड़ा व्यक्ति भी उनके सामने नत मस्तक हुए बिना नहीं रह सकता । महाराज श्री आत्मारामजी जिन दिनों अहमदाबाद में पधारे उनदिनों अहमदाबाद का धार्मिक वातावरण भी कुछ विक्षुब्ध सा हो रहा था । कई एक कुल गुरुओं की उत्सूत्र प्ररूपणा ने उसके ( धर्म के ) विशुद्ध स्वरूप को विकृत कर दिया था। बहुत सी अबोध जैन जनता इनके चंगुल में बुरी तरह से फंसी हुई थी। श्री शांति सागर जी इन सब में शिरोमणि थे । परन्तु महाराज श्री आत्मारामजी की क्रान्ति प्रधान धर्मघोषणा ने जहां अहमदाबाद की अबोध जैन जनता के अन्धकारपूर्ण हृदयों में प्रकाश की किरणें डालकर उन्हें सन्मार्ग का भान कराया ह श्री शान्तिसागर जैसे उत्सूत्र प्ररूपक के हृदय में भी एक प्रकार की हलचल पैदा करदी | उसने आपके प्रवचन से प्रभावित हुए अपने भक्तों को जब अपने से विमुख होते देखा तो उसने श्री आत्मारामजी से करने का प्रस्ताव किया । शांतिसागरजी के प्रस्ताव का सहर्ष स्वागत करते हुए श्री आत्मारामजी ने उपस्थित जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि भाईयो ! मैं तो सत्य का जिज्ञासु अथच सत्य का पक्षपाती हूँ — आप लोगों को इस बात का ध्यान रहे कि मैंने क्षत्रिय कुल में जन्म लेते हुए सर्वप्रथम ढूंढ कमत की दीक्षा को अंगीकार किया और वर्षों तक उस मत में रहा परन्तु जैनागमों के सतत अभ्यास से जब मुझे ढूंढक मत का स्वरूप प्राचीन जैन धर्म से विरुद्ध प्रतीत हुआ तब मैंने उस सम्प्रदाय में प्राप्त होने वाली महती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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