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________________ श्री शांतिसागर का पराजय १८३ प्रतिष्ठा को भी ठुकराकर सत्य को अंगीकार करने में किसी प्रकार का संकोच नहीं किया ? श्री शांतिसागर का कथन यदि आगम सम्मत्त होवे तो उसके स्वीकार करने में मुझे या आप लोगों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये परन्तु जहां तक मुझे मालूम है उनका कथन शास्त्रसम्मत नहीं किन्तु उसके विरुद्ध है। जैन दर्शन अनेकान्तवाद प्रधान दर्शन है उसमें एकान्तवाद को कोई स्थान नहीं। न्याय वेदान्त आदि दर्शनों को जैन दर्शन इसलिये असद्दर्शन कहता है कि उनमें एकान्तवाद को ही अपनाया गया है । अतः अनेकान्त दृष्टि से किया गया विचार सम्यक्त्व का पोषक है जब कि एकान्त दृष्टि मिथ्यात्व को पुष्ट करती है । इस वस्तु को समझकर ही आप लोगों के मेरे और शान्तिसागरजी के कथन पर ठंडे दिल से विचार करने की आवश्यकता है, कारण कि उनका ओर मेरा शास्त्रार्थ केवल मेरे या उनके लिये नहीं अपितु आप लोगों के लिये भी है। अगले दिन श्री शान्तिसागर ने आकर आपसे जो प्रश्न किये उनका शास्त्रों के आधार पर आपने इतना सचोट उत्तर दिया कि शान्ति सागरजी को निरुत्तर होकर वहां से प्रस्थान करने के सिवा और कोई मार्ग न सूझा । इस वार्तालाप का अहमदाबाद की जैन जनता पर बड़ा भारी प्रभाव पड़ा, अभी तक जो लोग शान्तिसागर का कुछ पक्ष लिये बैठे थे उन्होंने भी पल्ला झाड दिया अर्थात वे भी शान्तिसागर का पीछा छोड़ गये। महाराज श्री आत्मारामजी की अपूर्व विद्वत्ता प्रतिभा और समयज्ञता की जनता द्वारा भूरि २ प्रशंसा होने लगी, और श्री आत्मारामजी के तेजस्वी प्रभाव के आगे शान्तिसागरजी का व्यक्तित्व अमावस के चन्द्रमा की भान्ति निस्तेज होकर रह गया । व्याख्यान सभा के विसर्जित होने और श्रोताओं की भीड़ कम होने पर नगर सेठ प्रेमाभाई हेमाभाई और सेठ दलपतभाई भग्गूभाई दोनों प्रमुख श्रावकों ने महाराज आत्मारामजी को सम्बोधित करते हुए हाथ जोड़कर कहा कि कृपानाथ ! निदावजन्य महाताप से सन्तप्त मानव मेदनी को शान्ति पहुंचाने वाले वर्षा कालीन मेघ की भांति आपश्री ने अपने प्रवचन वारिधारा से हम लोगों के हृदयों में जिस शान्त रस का संचार किया है उसके लिये हम सब आपश्री के जन्म जन्मान्तर तक कृतज्ञ रहेंगे। श्री शान्तिसागर के चंगुल में फंसी हुई भोली जैन जनता को सन्मार्ग पर लाने का आपने जो श्रेय साधक प्रयत्न किया है वह आप श्री के महान व्यक्तित्व को ही आभारी है । आपश्री सिद्धाचल तीर्थराज की यात्रा करके वापिस अहमदाबाद पधारें और चातुर्मास करने की कृपा करें तो हम लोगों पर बहुत ही उपकार होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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