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मुखवस्त्रिका [ मंहपत्ती] का परित्याग
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रेत के कोमल.और सुहावने टिब्बे पर कुछ क्षण विश्राम करने के बाद श्री हाकमराय ने मुंहपत्ती को हाथ लगाते हुए श्री आत्मारामजी से कहा-कृपानाथ !इस कुलिंग को अब कब तक मुंह पर बिठाये रखना है ?
श्री आत्मारामजी-यह तो अब तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है. तुम चाहो तो अभी उतार दो। श्री हाकमरायजी-महाराज ! हम तो आप की तर्फ देख रहे हैं ?
श्री आत्मारामजी-तो लो अभी उतार देता हूँ। ऐसा कहकर आपने डोरा तोड़कर मुंहपत्ती से अलग कर दिया, बस फिर क्या था आन की आन में एक दूसरे ने एक दूसरे की मुंहपत्ती को मुख पर से अलग कर दिया। मुख पर से उतारी हुई मुंहपत्तियों का रेते पर एक छोटासा ढगला बन गया । और उस ढगले को देखते हुए सबने हाथ जोड़कर कहा-हे शानदेव ! अब फिर किसी भव में हमें ऐसा कुलिंग प्राप्त न हो । तदनंतर सब साधुओं ने श्री आत्मारामजी से कहा-कि महाराज ! यदि आज्ञा हो तो इन मुंहपत्तियों को इन डोरों के साथ बान्धकर इनका पार्सल कराकर पूज्य जी साहब को भेज दिया जावे और साथ में लिख दिया जावे कि तुम्हारी चीज तुम्हें वापिस भेज दी गई है इसे संभाल कर रखलें ?
श्री आत्मारामजी नहीं भाई ! ऐसा करना उचित नहीं। हमारे इस व्यवहार से उनको बहुत कष्ट होगा, उनकी आत्मा और भी दुःख मानेगी, अपने साधु हैं, किसी को कष्ट पहुंचाना यह भी तो साधु धर्म के विरुद्ध है इसलिये हमें ऐसा काम शोभा नहीं देता । तब सबने आपकी सम्मति से उन मुंहपत्तियों को कहीं रेते के टिब्बे में दबा दिया । और वहां से विहार करके हांसी, भिवानी आदि नगरों में होते हुए मारवाड़ प्रान्त के प्रसिद्ध नगर पाली में पधारे।
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