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अध्याय ३२
"मुखवस्त्रिका-मुंहफ्ती] का परित्याग"
दूसरे दिन सब साधुओं ने निश्चित कार्यक्रम के अनुसार लुधियाने से प्रस्थान कर दिया, शुद्ध सनातन जैन परम्परा सम्मत साधु धर्म में दीक्षित होने और प्राचीन प्रभाविक जैन तीर्थों की यात्रा से पुण्यानुबन्धी पुण्य संचय करने के लिये । आहार पानी और रात्रि निवास के निमित्त रास्ते में आने वाले नगरों और ग्रामों में ठहरते हुए मालेरकोटला और वहां से सुनाम पधारे । सुनाम में हांसी जाते हुए रास्ते में कुछ देर विश्राम करने के लिये सब एक रेत के टिब्बे-टीले पर बैठ गये।
ढूंढ़क परम्परा के साधु वेष में सबसे अधिक महत्व का स्थान मुखवस्त्रिका-मुँहपत्ती को ही प्राप्त है, जबकि जैनागमों में साधु दीक्षा के लिये केवल रजोहरण और पात्रा इन दो का ही उल्लेख किया है, मुखवस्त्रिका को वहां स्थान नहीं दिया । कोई भी व्यक्ति कितना भी ज्ञानवान या संयमशील क्यों न हो पर जब तक उसके मुख पर डोरेवाली मुखवस्त्रिका विराजमान न हो तब तक वह साधु नहीं कहला सकता और नाही उसे कोई वन्दना नमस्कार करता है। आज कल तो इस मत के विद्वान् साधुओं में भी इसका व्यामोह अपनी सीमा को पार कर गया है, उन्होंने गणधरों और तीर्थंकरों तक के मुख को इससे अलंकृत करके अपनी विद्वत्ता को चार चान्द लगा दिये हैं । साम्प्रदायिक व्यामोह में सब कुछ क्षम्य है । संक्षेप से कहें तो इस पंथ में मंहपत्ती की उपासना को जिन प्रतिमा की शास्त्र विदित उपासना से कहीं अधिक महत्व का स्थान प्राप्त है। महाराज श्री आत्मारामजी को इस सम्प्रदाय के मानस का खूब अनुभव था तभी उन्होंने अपनी धार्मिक क्रान्ति में मुंहपत्ती को अपनाये रक्खा, और उसे तब तक मुख से अलग नहीं किया जब तक कि लोक मानस को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये उसकी आवश्यकता प्रतीत होती रही । इस दृष्टि से देखें तो महाराज श्री आत्मारामजी के क्रान्ति प्रधान धार्मिक आन्दोलन में इस मुखवत्रिका ने भी आपको काफी सहायता दी है न ।
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