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वेष परिवर्तन का बिचार
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महाराज ! आप श्री के पुण्य प्रताप से आज पंजाब के हर एक नगर और ग्राम में जिन शासन का भेरी नाद हो रहा है। इस समय हम लोगों का जो कर्तव्य था वह प्रायः पूर्ण हो चुका । और आपके आदेशानुसार उसके पालन में हम लोगों ने अणुमात्र भी प्रमाद नहीं किया । एवं श्राप श्री के अमोघ आशीर्वाद से हमें उसमें सफलता भी मिली परन्तु अब हम आपसे जो प्रार्थना करनी चाहते हैं उसकी ओर भी आप ध्यान देने की कृपा करें ?
श्री आत्मारामजी-कहो भाई क्या कहना चाहते हो ? मैं तुम्हारी उचित मांग की अवलेहना या उपेक्षा करू इसका तो तुमको कभी ख्याल भी नहीं लाना चाहिये ।
श्री विश्नचन्दजी-कृपानाथ ! सबसे पहली प्रार्थना तो यह है कि इस शास्त्रबाह्य ढूंढक वेष में हमें आप कब तक बिठाये रक्खोगे ? इस शास्त्रबाह्य वेष का परित्याग करके विशुद्ध जैन परम्परा के साधु वेष को धारण करने का आप क्यों प्रयत्न नहीं करते ? यह सत्य है कि इसके लिये किसी सुयोग्य निर्ग्रन्थ गुरु की आवश्यकता है परन्तु उसकी उपलब्धि के लिये प्रयत्न करना भी तो आप ही का काम है। .
दूसरी प्रार्थना-आपने कई बार श्री शत्रुजय और गिरनार आदि प्राचीन तीर्थों का जिकर किया, उनकी महिमा सुनाई और उनकी यात्रा का महत्व वर्णन किया तो क्या ऐसे महा महिमशाली लोकोत्तर तीर्थों की पुण्य यात्रा से हमें वंचित ही रक्खा जायगा ? क्या हमें उनकी यात्रा का सद्भाग्य प्राप्त न होगा ? महाराज! अधिक क्या कहें हमें तो इस पंथ के कुवेश से अब बहुत घृणा हो रही है । इसलिये कृपया शीघ्र से शीघ्र हमें इससे मुक्त कराइये।
श्री आत्मारामजी-अच्छा भाई जैसी तुम्हारी इच्छा ? कुछ जल्दी कर रहे हो, यदि थोड़ा समय और ठहर जाते तो रही सही न्यूनता भी पूरी हो जाती। अच्छा ज्ञानी ने ऐसा ही देखा होगा इसलिये अब इस सम्बन्ध में अधिक विचार करना अनावश्यक है । तो फिर चलो तैयारी करो और मन में उठी हुई इस पुनीत भावना को शीघ्र से शीघ्र पूर्ण करने का यत्न करो । मानव भव की सर्वोच्चता और अस्थिरता को ध्यान में रखते हुए धर्म साधन में तत्पर रहना ही साधु जीवन का सच्चा आदर्श है।
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