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अध्याय ३०
"जिन काबीसी की रचना"
महाराज श्री आत्मारामजी निरे आगमवेत्ता या शास्त्रों के पंडित ही नहीं थे अपितु अच्छे कवि भी थे । आपने हिन्दी भाषा में प्रभु की स्तुति में जो काव्य लिखे हैं एवं वैराग्य और शान्त रसमें रंगी हुई जो मार्मिक रचनायें की हैं, उन्हें देखते हुए आपकी प्रतिभा - सम्पत्ति की जितनी भी सराहना की जावे उतनी कम है।
जिस समय आपका अम्बाले में चतुर्मास था उस समय आपके पास ढूंड़क पंथ का परित्याग करके वीतराग देव के धर्म में दीक्षित होने वाले साधु श्री हुक्मचन्द -हुक्ममुनि ने आपसे प्रार्थना की कि-महाराज!
आप जानते हैं कि मुझे संगीत का कुछ थोड़ा बहुत अभ्यास है, इसलिये मैं चाहता हूँ कि भगवान् की स्तुति रूप कुछ ऐसे भजन हों जिन्हें मैं गाकर संगीत के साथ २ आत्मोल्लास का भी अनुभव प्राप्त कर सकू। मेरी इस चिरंतन अभिलाषा को पूर्ण करने की आप अवश्य कृपा करें। हुक्ममुनि की इस अभ्यर्थना को मान देते हुए श्री आत्मारामजी ने २४ तीर्थंकरों के २४ स्तवन बनाये जोकि जिन चौबीसी के नाम से प्रसिद्ध हैं । जिन चौबीसी के अन्त में दिये गये कलश के बाद एक दोहे में आपने हुक्ममुनि के नाम का, भी निर्देश किया है यथा
कलश-चउवीस जिनवर सयल सुखकर गावतां मन गह गहे ।
संघ रंग उमंग निजगुण भावतां शिवपद लहे ॥ नामे अम्बाला नगर जिनवर बैन रस भविजन पिये |
संवच्छरोख पानि निधि विधु१ रूप प्रातम जस किये ।। दोहा-जिनवर जस मनमोद थी हुकुममुनि के हेत ।
जो भवि गावत रंगसु, अजर अमर पद देत ॥१॥
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