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नवयुग निर्माता
न तो वंदना करे न रहने को स्थान दे न व्याख्यान वाणी सुने और नाही आहार पानी आदि की विनति करे । हम लोगों ने पूज्यजी साहब के आदेशानुसार इन बातों का नियम कर लिया है, आप भी अपने शहर में लोगों से नियम कराने का यत्न करें।
यह पत्र या इसका समाचार जब होशयारपुर के श्रावकों के सुनने में आया तो भक्त नत्थूमल और लाला प्रभदयाल आदि ने कहा कि महाराज श्री आत्माराम और उनके साधुओं के लिए तो ऐसा प्रबन्ध होना दुर्घट है, हां ! जिसने यह पत्र भिजवाया है उसके लिए तो ऐसा किया जा सकता है और किया जाना भी चाहिये। एक श्रावक ने तो यहां तक भी कहदिया कि पत्र भिजवाने वालों को चाहिये कि वे इसे अपने पास वापिस मंगवा कर इसे शहद लगा कर चाटा करें। इसी प्रकार अन्य शहरों के विचारशील गृहस्थों ने भी इस पत्र की खूब हंसी उड़ाई और कहा कि पूज्यजी साहब और उनके दूसरे साधु लुक छिप कर दूसरों के कन्धों पर रखकर क्यों चलाते हैं । महाराज आत्मारामजी के सामने क्यों नहीं आते ? यदि उनमें सचाई है तो मैदान में आकर फैसला करें । लुक छिप कर वार करना तो निरी नपुंसकता है और हमें तो यह भी संदेह है कि आत्मारामजी का आहार पानी बन्द कराते २ कहीं अपना ही बन्द न करा बैठे । सारांश कि पूज्य अमरसिंहजी के भिजवाये हुए पत्रों का विचारशील श्रावकवर्ग पर कुछ भी प्रभाव नहीं हुआ। बल्कि श्री आत्मारामजी और उनके सहयोगी साधुवर्ग पर उनकी पहले से भी अच्छी श्रद्धा होगई।
होशयारपुर से बिहार करके प्रामानुग्राम विचरते और धर्मोपदेश करते हुए श्री आत्मारामजी तो जीरे में पधारे और १९२६ का चतुर्मास आपने वहीं पर किया। इधर श्री विश्नचन्दजी आदि ने उनके आदेशानुसार भिन्न २ शहरों में चतुर्मास किये।
जीरे के इस चतुर्मास में जनता आपकी तरफ और अधिक आकर्षित हुई । उससे पहले की अपेक्षा विशेष प्रेम और असाधारण धर्मानुराग का अनुभव करते हुए श्री आत्मारामजी को भी बहुत आनन्द हुआ। उधर पंजाब के विभिन्न नगरों में होने वाले अन्य साधुओं के चतुर्मासों में भी प्राचीन जैन धर्म के श्रद्धालुओं की संख्या में काफी उन्नति हुई । चतुर्मास की समाप्ति के बाद श्री आत्मारामजी तथा श्री विश्नचन्दजी आदि ने पंजाब के हर एक ग्राम और नगर आदि में भ्रमण करके अपने हाथ के लगाये हुए धर्म पौदे को विपक्षियों से सुरक्षित रखने का यत्न किया । १६३० का चतुर्मास श्री आत्मारामजी ने अम्बाला में किया और १६३१ का होशयारपुर में । अन्य साधुओं के चतुर्मास अन्य नगरों में हुए । इन दो चतुर्मासों में प्राचीन जैन धर्म की प्रतिष्ठा में जो कुछ कमी बाकी थी वह भी पूरी हो गई।
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