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साधु कन्हैयालाल का भाग्योदय और पूज्यजी का ज्वर प्रलाप
गणेशजी - भाई ! साधुओं का काम ऐसे ही चलता है । परन्तु यह कैसे सूझी ?
बताओ, तुम्हें आज यह
कन्हैयालालजी - पहले चल गया सो चल गया मगर अब नहीं चलेगा और न चलने दिया जायगा । मेरे मुन्दे हुए विवेक चतु अब खुल गये इसलिये मुझे सब कुछ सूझने लगा है । तुमारे जैसे दंभी और अनिष्टाचारियों की संगत में रहना भी अधर्म को पुष्ट करना है, और तुमारे जैसों के सहवास में रहकर आत्म पतन की ओर जाने वाला जीव कभी सद्गति को प्राप्त नहीं कर सकता, इसलिये तुमारे दुष्ट संसर्ग को त्याग कर मैं तो अब उसी महापुरुष की शरण में जाऊंगा जिसके पुनीत प्रवचन ने मेरी आंखें खोलदी हैं ।
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इतना कहने के बाद श्री कन्हैयालालजी सीधे महाराज श्री आत्मारामजी के पास आये और उनसे जैनधर्म के शुद्ध स्वरूप की श्रद्धा को अंगीकार किया ।
धौड़ ग्राम में विराजे हुए पूज्य श्री अमरसिंहजी को जब यह समाचार मिला तो उन्हें बहुत कष्ट हुआ और मानसिक चिन्ता के बढ़ने से ज्वर आने लगा। ज्वर का वेग इतना बढ़ा कि आप उसमें प्रलाप करने लगे, और पास में बैठे अपने शिष्य तुलसीराम से कहने लगे - " तुलसी ! उठो लुधियाने चलें, वहां चलकर आत्माराम की खबर लेवें और उस पर मुकद्दमा चलाकर कैद करा देवें ! इसने मेरे सब चेले बहकाकर अपनी तरफ कर लिये हैं" इत्यादि ।
पूज्य जी साहब यद्यपि ज्वर के तीव्र वेग में बेभान हुए यह सब कुछ कह रहे थे परन्तु उनका यह कथन तो अक्षरशः सत्य था कि - " आत्माराम ने मेरे सब चेले बहकाकर अपनी तरफ कर लिये हैं"
श्री विश्नचंद, हाकमराय और चम्पालालजी आदि जितने अच्छे २ साधु पूज्य अमरसिंहजी के समुदाय में दिखाई देते थे वे सबके सब मन से श्री आत्मारामजी के हो चुके थे, और गुप्त रूप से उन्हीं के देशानुसार काम कर रहे थे। पृज्यजी साहब से तो उनका ऊपर का ही मेल था अन्दर से तो वे उनके विरुद्ध थे । तथा - जिस तुलसीराम के पास श्री अमरसिंहजी ने उक्त बातें कहीं वह भी अन्दर से श्री आत्मारामजी काही भक्त था और उन्हीं के विचारों का गुप्तप्रचारक भी । इसलिये तुलसीरामजी ने पूज्य अमरसिंहजी के प्रलाप को कोई महत्व नहीं दिया । यद्यपि श्री आत्मारामजी का भाव तो जीरा में चतुर्मास करने का था परन्तु लुधियाने की जनता की सानुरोध प्रार्थना और बलवती क्षेत्र फर्मना के कारण उनका १६२८ का चतुर्मास लुधियाने में हुआ। इधर श्री विश्नचन्दजी आदि का विचार भी लुधियाने में चतुर्मास रहने का था परन्तु पूज्यजी साहब यह नहीं था, इसलिये उन्होंने पत्र पर पत्र भिजवाकर वहां से विहार करा दिया और चतुर्मास उन्होंने अम्बाले में किया ।
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