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________________ श्री रामबक्षजी से वार्तालाप नहीं बोल रहे बल्कि तुमारे अन्दर कोई दूसरा बोल रहा है । और जहां तक मैं समझ पाया हूँ तुमारे ऊपर आत्माराम का जादू चल गया है, जीरे में आने के बाद उसने तुम लोगों को ऐसी ऊटपटांग-बिना सिर पैर की बातें सिखाकर तुमारी श्रद्धा को भी बिगाड़ दिया है अन्यथा ऐसी श्रद्धाहीन बातें दूसरा कौन कह सकता है । सो इन प्रश्नों में तुम नहीं बोल रहे किन्तु आत्माराम बोल रहा है, यदि जवाब देना होगा तो उनको देंगे तुम लोगों को क्या देना है ? जोकि कुछ जानते ही नहीं। एक श्रावक-महाराज ! यदि जानते होते तो आपके पास आने की जरूरत ही क्या थी ? परन्तु आपने भी तो कोई काम की बात नहीं कही ! हम लोग तो आपके पास अपनी डगमगाती हुई पुरानी श्रद्धा को दृढ़ करने के लिये आये थे परन्तु आपने उसे और भी ठोकर मारदी ! दूसरा श्रावक-महाराज ! श्राप फर्माते हैं कि हमारे इन प्रश्नों में आत्माराम बोल रहा है यदि यह सत्य है तो आप इस बोलते को चुप कराइये न ? यदि यहां नहीं करा सकते तो कृपया वहां जीरा पधारिये । अथवा कहो तो हम उन्हें विनति करके यहां आपके पास ले आते हैं तब तो आपको चुप कराना और भी सुगम होगा । कहिये कौनसी बात मन्जूर है ? श्री रामवक्षजी जरा आवेश में आकर-तुम लोग तो मेरी दिल्लगी कर रहे हो, मेरी हंसी उड़ा रहे हो । क्या यह भी कोई सभ्यता है ? पंजूमलजी-महाराज ! आप खफा क्यों होते हो ? श्री अात्मारामजी ने जीरे आकर हम लोगों के सामने ये सब बातें कही हैं और हम लोगों ने आज तक ऐसी बातें कभी सुनी नहीं थी, तब हमारे मन में विचार उठा कि आप के पास चलकर निर्णय करें कि वास्तव में ऐसा ही है जैसा कि श्री आत्मारामजी फर्मा रहे हैं या इस में कुछ अन्तर है । परन्तु आपने हमारी बातों पर कुछ भी ध्यान न देकर उलटा हमें श्रद्धाहीन और मूर्ख कहना शुरु कर दिया । ऐसा करना आपके लिये और इस पंथ के अनुयाइयों के लिये कहां तक उचित और हितकर हो सकता है इसका विचार आप स्वयं करें । आत्मारामजी के सम्पर्क से तुम्हारी भी श्रद्धा भ्रष्ट हो गई है, इतना कह देने से तो आप हमारे मन पर काबू नहीं पा सकते और नाही श्री आत्मारामजी के प्रभाव को कम कर सकते हैं । ___पंजूमलजी के इस संभाषण ने श्री रामबक्षजी के मन में एक नई घबराहट उत्पन्न करदी और वे गहरी सोच में पड़ाये, अन्त में उन्हें एक मार्ग सूझा अपना पीछा छुड़ाने का । वह था आवश्यक सूत्रगत पाठ का। आप बोले-देखो भाई ! और बातें तो पीछे होंगी पहले आवश्यक सूत्र के पाठ की बात करलो,आत्मा राम ने तुम्हें धोखा दिया है आवश्यक सूत्र में यह पाठ ही नहीं है लो देखो यह पड़ा आवश्यक, निकालो ! इसमें वह पाठ ! [भला उसमें वह पाठ कहां निकलता जब कि वह था ही गुजराती मिश्रित भाषा में] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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