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________________ नवयुग निर्माता (४) अपनी इस ढूंढ़क परम्परा में-[ जिसके मूल पुरुष हम भगवान महावीर स्वामी को मानते हैं ] कौन कौन से प्रभावशाली प्राचार्य हुए और उन्होंने संस्कृत या प्राकृत भाषा में कौन कौन सी रचना की ? क्या उनमें से किसी ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध भी किसी प्रकार की घोषणा की है ? यदि नहीं तो क्यों ? यदि अपनी इस परम्परा में लौंकाजी से पहले कोई भी आचार्य ऐसा नहीं हुआ तो अपनी यह परम्परा महावीर की परम्परा किस प्रकार कहला सकती है ? (५) अपने सन्ध्या सामायिक के बाद जो यह पढ़ते हैं-"प्रथम साध लवजी भये" तो क्या लवजी से पूर्व कोई साधु नहीं था ? लवजी स्वामी विक्रम की १८ वीं शताब्दी में हुए और वे लौकाजी के गच्छ में उनसे अनुमान दोसौ वर्ष बाद हुए तथा लौंकाजी गृहस्थ थे, साधु नहीं थे, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है । और यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि लवजी स्वामी से पहले लौंका मत के या लौंकागच्छ के कोई भी यति मुहपत्ती नहीं बांधते थे, मुहपत्ती बांधने की प्रथा लवजी से चली, लौंकाजी ने तो केवल जिन प्रतिमा की उत्थापना की है । तब अपनी इस परम्परा में मूर्ति अर्थात् जिन प्रतिमा की उत्थापना और मुहपत्ती का बांधना ये दोनों बातें प्रचलित ही नहीं किन्तु सिद्धान्त रूप से प्रविष्ट हैं, तो क्या इससे यह मानने के लिये बाधित नहीं होना पड़ता कि हम वास्तव में भगवान महावीर के न होकर लौंका और लवजी के हैं ? अर्थान हमारी ढूंढक या स्थानकवासी परम्परा के मूल पुरुष दो, श्री लौकाजी और लवजी । इनमें पहला गृहस्थ और दूसरा यति है, आप कृपा करके इन सब बातों का स्पष्ट शब्दों में खुलासा करने की कृपा करें ? (६) अन्त में एक बात और है जिसका स्पष्टीकरण हम इन प्रश्नों के उत्तर मिल जाने के बाद करावेंगे वह आवश्यक सूत्रगत-"अरिहंत चेझ्याणं करेमि काउसगं” पाठ के परमार्थ से सम्बन्ध रखती है । आप श्री ज्ञानवान हैं हमारे इस मत के नेता हैं और मार्गदर्शक हैं इसलिये हम लोग आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं । हमारी इन उक्त शंकाओं का सन्तोपजनक समाधान करने की कृपा करें? श्री पंजूमलजी आदि श्रावकों की उक्त शंकाओं को सुनकर श्री रामबक्षजी तो एकदम किंकतेव्य विमूढ़ से होगये । अब उत्तर दें तो क्या दें ? और उत्तर देने की शक्ति भी कहां ? यदि शक्ति भी हो तो इनका उत्तर भी क्या हो सकता है ? दो और दो चार को झूठा भी कैसे ठहराया जा सके ? बहुत कुछ ऊहापोह करने के बाद आपको पीछा छुड़ाने की एक युक्ति सूझी और आप बोले तुम लोगों ने जो प्रश्नकिये हैं वे सबके सब मैंने सुनलिये हैं और इनका उत्तर भी मैं अच्छी तरह से दे सकता हूँ, परन्तु यह तो बतलाओ कि तुमको यहां पर भेजा किसने ? ये तुमारे अपने प्रश्न नहीं हैं, किन्तु किसी दूसरे ने तुम्हें तोते की तरह ये प्रश्न पहले रटा दिये और हमारे पास उत्तर के लिये भेज दिया इसलिये तुम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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