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________________ १५८ नवयुग निर्माता श्री पंजूमलजी-महाराज ! यह आवश्यक कैसा ? आचारांग प्रभृति सभी सूत्र ग्रन्थ जब अर्द्ध मागधी प्राकृत भाषा में हैं तो आवश्यक सूत्र भी तो उसी भाषा में होना चाहिये ? यह तो गुजराती भाषा मिश्रित कुछ और ही प्रतीत होता है, कृपा करके आप असली आवश्यक सूत्र निकालो! यदि आपके पास नहीं हो तो हम लाकर आपको दिखा सकते हैं। रामबक्षजी क्रोधावेश में तुम लोगों के अन्दर अज्ञान बढ़गया है । इसलिये हमारी बात को सुनते नहीं हो । यदि हमारे ऊपर तुमको विश्वास है और तुम हमको गुरु मानते हो तो जैसे हम कहें वैसे ही तुम करते और मानते जाओ, हमारे पास तो यही आवश्यक है तुम्हारे लिये कोई नया आवश्यक तो हम लाने से रहे । तुम अपना असली आवश्यक अपने ही पास रक्खो हमको उसकी जरूरत नहीं। जाओ साधुओं से झगड़ा मत करो! तुमारी श्रद्धा तुमारे पास और हमारी हमारे पास । इतना कहकर श्री रामवक्ष जी वहां से उठ खड़े हुए, और जीरा के सद्गृहस्थों ने भी, हाथ जोड़कर बड़ी कृपा महाराज! आपने हम लोगों के प्रश्नों का उत्तर देकर हमें कृतार्थ कर दिया” कहते हुए वहां से प्रस्थान किया। ये लोग पटियाले से चलकर सीधे जीरे पहुँचे और सर्व प्रथम श्री आत्मारामजी के पास आये । अन्य लोग जो उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे, वे भी उनका आगमन सुनकर वहीं-[जहां श्री आत्मारामजी ठहरे हुए थे] पहुँच गये । ला० पंजूमलजी आदि गृहस्थों ने श्री आत्मारामजी को वन्दना करी और पटियाला की यात्रा में जो कुछ हुआ उसे सबके समक्ष अथ से इति तक कह सुनाया । सुनकर श्री आत्मारामजी कुछ मुस्कराये और कहने लगे-तुमारी इस प्रकार की मनोवृत्ति और सद्व्यवहार से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। धर्म निर्णय के लिये तुमारी जैसी गवेषक बुद्धि के लोग ही उपयुक्त हो सकते हैं ! अब तुमारी जैसी इच्छा हो वैसे करो ! पंजूमल आदि गृहस्थ लोग हाथ जोड़कर-महाराज! जिस समय हम लोगों ने अपने प्रश्नों का उत्तर-[ जैसा कि पहले कह सुनाया है ] श्री रामवक्षजी के मुखारविन्द से सुना, उसके अनन्तर ही हमने अपने ढूंढ़क मत के संस्कारों को उनके सुपुर्द कर दिया ! और उनसे कह दिया कि "महाराज ! आपकी दी हुई वस्तु हम आपको ही वापिस कर देते हैं कृपया आप ही इसे संभालें, हमसे अब यह संभाली नहीं जाती ! आप श्री ने हमारे ऊपर जो उपकार किया है, उसके लिये हम आपके अधिक से अधिक आभारी हैं और आपने हमें जो सन्मार्ग दिखाया है, शेष जीवन में हम उसो का अनुसरण करेंगे !" आज से आप हमारे सद्गुरु और हम आपके विनीत शिष्य हुए, यह गुरु शिष्य का धार्मिक नाता उत्तरोत्तर अखंड और स्थायी रहेगा। इतना कहने के बाद सबने श्री आत्माराम जी से शुद्ध सनातन जैन धर्म का श्रद्धान अंगीकार किया। इसके अतिरिक्त इसी क्षेत्र में आपने पूज्य श्री अमरसिंहजी के समुदाय के श्री कल्याणजी नाम के एक ढूंढक साधु को प्रतिबोध देकर शुद्ध सनातन जैन धर्म का अनुरागी बनाया । इस प्रकार अपनी जन्मभूमि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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