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________________ - १५२ नवयुग निर्माता श्री श्रआत्मारामजी-तुम लोगों के इस निष्कपट और स्पष्ट सम्भाषण से मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है, तुमने जो विचार प्रदर्शित किये हैं वे नितांत प्रशंसनीय हैं, मैं इनका सच्चे हृदय से स्वागत और समर्थन करता हूँ । धर्म की सच्ची जिज्ञासा रखनेवाले के लिये इसी मार्ग का अनुसरण करना हितकर है । मैं ने भी इसी मार्ग का सर्वेसर्वा अनुसरण किया है । मैंने ढूढक मत की दीक्षा ग्रहण करने के बाद वर्षों तक शास्त्रों का मनन चिन्तन और गम्भीर अभ्यास किया, सैंकड़ों विद्वानों का सत्संग किया, उनके साथ काफी वादविवाद किया और हृदय में उत्पन्न हुए सन्देह की निवृत्ति के लिये जहां कहीं भी कोई विद्वान सुना, उसके पास पहुंचा उसके सामने अपनी शंका को रक्खा और उसका समाधान सुना, सुनने के बाद एकान्त में बैठ कर तटस्थ मनोवृत्ति से उसपर विचार किया, इस प्रकार वर्षों के गहरे मनन चिन्तन और अभ्यास के बाद मैं ने धर्म के विषय में जो तथ्य खोजा उसी का मैं आज जनता में प्रचार कर रहा हूँ। तुम लोग बाजार में दो पैसे का बर्तन खरीदते हो, तो उसे भी कई बार ठोक बजाकर देखते हो, और चारों ओर से निहारते हो, कहीं से कच्चा पिल्ला तो नहीं, फिर धर्म जैसे अमोल रत्न को बिना देखे भाले और बिना परीक्षा किये कैसे अपनाया जावे । धर्म का जीवन से अत्यन्त गहरा सम्बन्ध है । मानव का इस लोक तथा परलोक में केवल धर्म ही साथ देनेवाला पदार्थ है, इसलिये पारलौकिक सद्गति की अभिलाषा रखनेवाले आत्मा को चाहिये कि वह धर्मतत्त्व की परीक्षा में किसी प्रकार की भी कमी न रक्खे । आज मैं तुम लोगों से स्पष्ट शब्दों में कहता हूँ कि मैं ने . वीतराग देव के धर्म मार्ग का जो स्वरूप तुम लोगों को बतलाया है और उसके सम्बन्ध में शास्त्रों के जो जो प्रमाण दिखलाये हैं उनकी तुम अच्छी तरह से जांच करो। दूसरे साधुओं के पास जाओ, मेरा कहा हुश्रा उनको सुनाओ और उनसे उसका उत्तर पूछो और फिर मेरे पास आयो । अगर फिर भी तुमको समझने या समझाने में कुछ कठिनाई मालूम दे तो उन साधुओं को मेरे पास लाओ या मुझे उनके पास ले चलो और परस्पर के विचार विनिमय से जो सत्य प्रतीत हो उसे स्वीकार करने का यत्न करो। मुझे तो अपने इन विचारों में रत्तीभर भी सन्देह नहीं रहा, यदि अपना सोना खरा है, और चोरी का भी नहीं तो सरे बाजार उसको कसौटी पर लगाने और आग में तपाने से हमें क्यों इन्कार करना चाहिये । इसलिये तुम लोग मेरे बतलाये हुए विचारों की अपनी इच्छा के अनुसार एक वार नहीं सौ बार परीक्षा करो। इससे मुझे और भी प्रसन्नता होगी। महाराज श्री आत्मारामजी के इन उद्गारों ने पंजूमल आदि श्रावकों को मंत्र मुग्ध सा बनाकर एक दम ठंडा कर दिया । जिस समय वे लोग वहां आये थे उस समय श्री श्रआत्मारामजी सटीक आवश्यक सूत्र का पर्यालोचन कर रहे थे । पुस्तक बहुत बड़ा था। एक श्रावक ने बड़े संकोच से काम्पते हुए स्वर में पूछा-महाराज! यह कौनसा शास्त्र है ? श्री आत्मारामजी-आवश्यक सूत्र । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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