SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूज्यजी साहब के आदेश का सत्कार १५१ कुछ श्रद्धा रखते थे उनके मन हर्षोद्रेक से खिल उठे । और जो पूज्य अमरसिंहजी के भक्तों में से वहां उपस्थित थे उनका मन भी ढूढक पंथ की श्रद्धा भूमि पर से पीछे खिसकने लगा। केवल बच गये या कोरे रहे वे जो पूज्यजी के आदेशानुसार नियम की रस्सी से बन्धे हुए खुर्ली के बैल की तरह वहां [आत्मारामजी के पास] पहुंचने में असमर्थ थे। जिस दिन श्री आत्मारामजी जीरामें पधारे और जब तक वहां रहे उतने दिन जीरा क्षेत्र धार्मिक चर्चा का केन्द्र बना रहा। कहीं मुंहपत्ती और मूर्तिपूजा की चर्चा आपस में हो रही है, और कभी आपस में विवाद करते हुए गृहस्थ लोग यथार्थ निर्णय के लिये महाराज आत्मारामजी के पास पहुँच जाते हैं और कभी पांच चार गृहस्थ मिलकर एक ही प्रकार की शंका को लेकर उनके पास जाते हैं तात्पर्य कि व्याख्यान हो चुकने के बाद आत्मारामजी के पास लोगों का हर समय जमघट बना रहता । जो कुछ भी कोई पूछता आप उसका बड़ी शांति से उत्तर देते । एक ही बात को बार बार पूछने पर भी आपकी शान्त मुद्रा में किसी प्रकार का फर्क न पड़ता। और जो कोई जैसा प्रश्न करता उसको वैसा ही उत्तर मिलता । जिज्ञासु को जिज्ञासु के रूप में समहित करते, वादो को शास्त्रीय प्रमाण से सन्तुष्ट करते और प्रतिवादी को प्रतिद्वन्दिता से निरुत्तर करते। जो लोग सरल प्रकृति के और सुलभ बोधी थे उन्होंने तो किसी प्रकार के प्रश्नोत्तर किये बिना ही आपके चरणों में आत्म निवेदन कर दिया, अर्थात् आपके उपदेशानुसार शुद्ध सनातन जैन धर्म के श्रद्धान को अंगीकार कर लिया । और जो विचारशील तथा शंकाग्रस्त थे उन्होंने प्रश्नोत्तर द्वारा अपने सन्देह को निवृत्त करके आपसे गृहस्थोचित्त शुद्ध जैन परम्परा को अपनाने की प्रतिज्ञा ली । और जो कुछ अधिक छानबीन करने की प्रकृति के थे उन्होंने आपसे पूछने के बाद दूसरे ढूंढक साधुओं के पास जाकर उसकी चर्चा कर के सत्यासत्य का निश्चय कर लिया और आपको अपना मार्ग दर्शक स्वीकार किया। . जैसा कि पहले कहा गया है जीरा के श्रावक अन्य क्षेत्रों के श्रावकों की अपेक्षा कुछ अधिक विचारशील और सत्य गवेषक प्रमाणित हुए उन्होंने जैसे पूज्य श्री अमरसिंह जी के इस आदेश को-कि तुमने श्रात्माराम के पास नहीं जाना, उनका व्याख्यान नहीं सुनना “ठुकरा दिया" उसी प्रकार उन्होंने श्री आत्मारामजी के कथन को भी तब तक नहीं अपनाया जब तक कि उनकी पूरी तसल्ली नहीं हो गई । एक दिन ला. पंजूमल आदि पांच सात श्रावक महाराज श्री आत्मारामजी के पास आये और कहने लगे कि महाराज ! आपने जो कुछ फर्माया है वह हम लोगों के गले में तो उतरता है और उस पर विश्वास करने का भी जी चाहता है परन्तु इतने समय के हृदय पर अंकित वे संस्कार एक दम हृदय से निकलने भी कठिन हैं,और हम लोग इतना विशद ज्ञान भी नहीं रखते जिस से स्वयं किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ निश्चय कर सकें,अब तो हमारे लिये सत्यासत्य निर्णय का यही एक उपाय है कि आपने जो कुछ फर्माया है, और जिन शास्त्रों के प्रमाणों से उसे पुष्ट किया है, उसके बारे में हम दूसरे इंढक साधुओं से भी बातचीत करें और फिर निश्चय करें कि किसका कथन युक्तियुक्त और शास्त्र सम्मत है ? इस विषय में आपकी क्या सम्मति है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy