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________________ १५० नवयुग निर्माता D इसे अपनाओ ! और "जो मेरा सो सच्चा” इसे त्यागो ! तभी तुम लोगों को धर्म की प्राप्ति हो सकेगी। इसलिये यथार्थ वस्तु को स्वीकार करने में लज्जा न करो और झूठी के त्याग में संकोच न करो। अपने सब भगवान महावीर का नाम लेते हैं परन्तु जब भगवान महावीर की परम्परा का विचार किया जाता है तब उसमें अपने इस ढूढक पंथ का कहीं नाम तक भी दिखाई नहीं देता। बहुत वर्षों के शास्त्रीय अभ्यास के बाद केवल सत्य गवेषणा की दृष्टि से विचार करने पर मैं जिस निश्चय पर पहुँचा हूँ उसी को मैंने अपने प्रतिदिन के प्रवचन में आप लोगों को सुनाना है । इसमें सन्देह नहीं कि बहुत सी बातें आप लोगों के लिये बिलकुल नई होंगी, और कुछ ऐसी भी होगी कि जिनको सुनकर आप एकदम चौंक उठेंगे। अतः मनको शान्त रखकर सुनना और उसमें जो सन्देह हो उसे मेरे द्वारा या अन्य किसी अनाग्रही वृत्ति के विद्वान् साधु के द्वारा निवृत्त करने का यत्न करना । प्राचीन जैन धर्म और ढूढक पंथ में स्थूल रूप से जिन बातों में अन्तर है वे तीन हैं, (१) साधु का वेष (२) मूर्ति पूजा और (३) मुहपत्ती का बान्धना । इन तीनों के अन्तर्गत बाकी का सभी मतभेद गतार्थ हो जाता है। आज के प्रवचन में सूत्र रूप से संक्षिप्त रूप से मैं इन तीनों की चर्चा करूंगा। जैसा कि मैंने अभी कहा कि अपना यह ढूढक पंथ प्राचीन वीर परम्परा से बहिष्कृत है, उसमें इसका कहीं पर भी स्थान नहीं है । श्री ठाणांग सूत्र में भगवान महावीर स्वामी के ६ गणों का उल्लेख किया है उनमें से किसी में भी इसका निर्देश नहीं है । दर असल बात यह है कि इस पंथ के जन्मदाता श्रीलौंका और लवजी नाम के व्यक्ति हैं, पहला विक्रम की १६ वीं शताब्दी में हुआ और दूसरा १८ वीं शताब्दी में । पहले ने जिन प्रतिमा का उत्थापन किया, जब कि दूसरे ने मुहपत्ति का बान्धना आरम्भ किया। ये दोनों ही बातें शास्त्र विरुद्ध अथच मनःकल्पित हैं। वर्तमान ढूढक समाज में जिनप्रतिमा का निषेध और मुहपत्ति का बान्धना इन दो बातों पर कितना जोर दिया जाता है इसके कहने की आवश्यकता नहीं, इसलिये अपने इस ढूढक मत के मूल प्रवर्तक लौंका और लवजी हैं, न कि महावीर स्वामी । इसके अतिरिक्त आगमों में साधु के वेष का जो स्वरूप बतलाया है अर्थात् उसके जो वस्त्र पात्रादि उपकरण हैं उन सबका माप और स्वरूप बतलाया है परन्तु अपने सारे उपकरण शास्त्र बाह्य बिना माप के हैं इसलिये हमारा ढूढक पंथ प्राचीन शास्त्रीय जैन परम्परा का प्रतिनिधि न होकर लौंका और लवजी की परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। मेरे इस कथन पर किसी भी साधु अथवा गृहस्थ को कोई शंका हो अथवा जो कुछ भी पूछना चाहता हो तो वह खुशी से पूछ सकता है और सत्यासत्य का निर्णय कर सकता है । महाराज आत्मारामजी के इस वक्तव्य का उपस्थित जनता के ऊपर बड़ा प्रभाव पड़ा। जैनेत्तर लोगों के हृदय तो आपकी सत्य और स्पष्ट घोषणा से बलियों उछलने लग पड़े। जो लोग आप में पहले से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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