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पूज्य जी साहब के आदेश का सत्कार
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करा दिया गया है। महाराज श्री आत्मारामजी पधार रहे हैं यह समाचार मिलते ही जनता उनके स्वागत के लिये उमड पड़ी। नगर के बाहर उनका हार्दिक स्वागत किया और वे जनता के साथ नगर में पधारे ।
जीरे की जनता चिरकाल से आपके उपदेशामृत का पान करने के लिये अधीर हो रही थी और श्री आत्मारामजी भी अपने क्षेत्र की श्रद्धालु जनता की चिरन्तन धर्म पिपासा को शान्त करने तथा सन्मार्ग पर लाने की भावना से ज़ीरा पधारने के लिये आतुर थे।
इससे पहले जब श्री आत्मारामजी जीरा में पधारे थे उस समय का वातावरण कुछ और था, आज उनका पधारना उसके विरोधी किसी दूसरे वातावरण में हो रहा है । उस समय के मुनि आत्माराम ढूंढक पंथ के नेता थे, आज के प्राचीन जैनधर्म के पुजारी और उसके प्रचण्ड प्रचारक थे। यह समय आपके लिये बड़े संघर्ष का था । एक तर्फ तो पूज्य श्री अमरसिंहजी, उनका साधु समुदाय और गृहस्थ वर्ग का बाहुल्य था, दूसरी तर्फ अकेले श्री आत्मारामजी, दो चार अन्य साधु-वे भी गुप्त रूप में] और इने गिने सद्गृहस्थ थे। तो भी
आप की क्रान्तिकारी धर्म घोषणा ने ढूंढक पंथ में खलबली मचा दी थी। पूज्य श्री अमरसिंह और उनकी शिष्य मंडली को यह निश्चय हो गया था कि अगर आत्मारामजी का पांव पंजाब में जम गया तो हमारी प्रतिष्ठा की खैर नहीं, इसलिये वे इधर उधर की भाग दौड़ में रात दिन एक किये हुए थे । अर्थात् महाराज
आत्मारामजी के विरुद्ध लोकमत एकत्रित करने में जी तोड़ कर मेहनत कर रहे थे । इन लोगों में आत्मारामजी के समक्ष आने की तो शक्ति नहीं थी, किन्तु उनके पीछे अपने श्रावकों को बुलाकर वे कहते थे कि देखो भाई
आत्माराम की श्रद्धा बिगड़ गई है वह खुल्लम खुल्ला मूर्तिपूजा का उपदेश देता है और मुंहपत्ती का खंडन करता है, तब ऐसे श्रद्धा भ्रष्ट साधु के पास जाने और उसको वन्दना नमस्कार करने में तुम्हारा समकित जाता रहेगा इसलिये हमारी यह आज्ञा है कि तुम उसके सम्पर्क में न आने का नियम करलो।
महाराज श्री आत्मारामजी के विरुद्ध परोक्ष में प्रयोग किया जानेवाला पूज्य अमरसिंह और उनके शिष्य वर्ग के पास बस यही एक शस्त्र था जिसका कि उन्होंने ग्राम ग्राम और नगर नगर में जाकर भोली जनता पर प्रयोग करने का भरसक प्रयत्न किया । परन्तु इसमें इन्हें उतनी सफलता नहीं मिली जितनी की वे आशा रखते थे।
जीरा में पधारने के बाद महाराज श्री अात्मारामजी ने अपने पहले दिन के प्रवचन में ही स्पष शब्दों में घोषणा की कि-मेरे वक्तव्य में यदि किसी को कोई शंका समाधान करना हो या किसी प्रकार का सन्देह हो तो वह अपनी इच्छा के अनुसार यहां सभा में पूछ सकता है, या जहां मैं ठहरा हुआ हूँ, हां
आकर पूछ सकता है, अकेला पूछ सकता है, और दो चार दस आदमियों को साथ लेकर पूछ सकता है। इस विषय में किसी को किसी प्रकार का संकोच नहीं करना । तुम लोग सत्य के पक्षपाती बनो, किसी प्रकार के हठ या दुराग्रह को अपने हृदय में स्थान मत दो ! दूसरे शब्दों में कहूँ तो "जो सच्चा सो मेरा"
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