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________________ - १४८ नवयुग निर्माता अब आप इस बात का स्पष्टीकरण करें कि हम दोनों भाइयों ने गुरुजनों के प्रति किये गये इस व्यवहार से पाप का उपार्जन किया अथवा गुरुजनों के दिलाये हुए नियम की रक्षा करते हुए पुण्य का संचय किया । और विपरीत इसके दोनों गुरुओं की इस नियम सम्बन्धी आज्ञा की अवलेहना करके हम दोनों भाई दोनों मुनिराजों की श्रद्धापूरित हृदय से भक्ति करें, अर्थात् मेरा भाई आपकी और श्री आत्मारामजी की सेवा भक्ति करता है और मैं श्री आत्मारामजी और आपकी सेवा शुश्रूषा करता हूँ तब ऐसी परिस्थिति में हम दोनों भाई पुण्य के भागी होंगे या पाप के ? इसका खुलासा तो आप जैसे ज्ञानी पुरुष ही कर सकते हैं सो करें ? श्रावक के इन प्रश्नों को सुनकर पूज्य श्री अमरसिंहजी तो असमंजस में पड़ गये और उन्होंने जब कुछ भी उत्तर न दिया, तब वह श्रावक कुछ उत्तेजित सा होकर-परन्तु नम्रता को लिये हुए बोला महाराज ! आप हमारे गुरु हैं, हम आपसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं-आप हमें मनुष्य ही बने रहने दीजिये, मनुष्य से पशु बनाने की जघन्य चेष्टा न करें। इसमें सन्देह नहीं कि आप हम लोगों से कहीं अधिक ज्ञानवान और चारित्र सम्पन्न हैं परन्तु महाराज ! हम लोग भी इतने अबोध नहीं हैं कि हमें पशु की भांति बान्ध कर केवल एक ही स्थान पर खड़ा कर दिया जाय ताकि हम भागकर किसी दूसरे स्थान पर न चले जावें। बन्धन तो कृपानाथ ! केवल पशुओं के लिये है न कि विचारशील मानव के लिये भी। - इस पर भी यदि आपका यही अाग्रह है कि हम लोग आपके बतलाये हुए मार्ग का ही अनुसरण करें तो इसका सबसे अच्छा और सरल उपाय यह है कि आप अाज का विहार मुलतवी रखें । आज या कल महाराज आत्मारामजी भी जीरे में पधार रहे हैं और आप तो पधारे हुए ही हैं । उनके आने पर आप दोनों महानुभाव हम लोगों के सामने विवाद ग्रस्त विषयों पर शास्त्रों के आधार से चर्चा कर लेवें, ताकि सत्यासत्य का शीघ्र स्पष्टीकरण हो जावे, आप दोनों महापुरुषों के विचार विनिमय से कम से कम हम लोग तो किसी निश्चित परिणाम पर पहुंच जायेंगे और आप को भी इस प्रकार के विडम्बनामय व्यवहार से छुट्टी मिल जावेगी। कहो इस साम्प्रदायिक रोग की इतनी सरल और सुन्दर चिकित्सा कोई और हो सकती है ? यदि नहीं तो इसका उपयोग कर देखिये न महाराज ! हम लोगों का इससे बहुत भला होगा। क्या महाराज इसे स्वीकार करते हैं। पूज्यजी साहब-भाई तुम लोग इतने तर्कबाज़ हो इसका तो मुझे आज ही पता चला । मैं तो इस चर्चा वर्चा के बखेड़े में पड़ता नहीं, मैं ने तो तुम लोगों को जो कुछ कहना था कह दिया अब तुम जानो तुम्हारा काम, इतना कहकर पूज्यजी साहब तो वहां से आगे को चल दिये, और उनको छोड़ने के लिये आये हुए श्रावक लोग उनको वन्दना करके पीछे लौट आये मन में महाराज श्री आत्मारामजी के स्वागत की उत्कंठा को लिये हुए। जिस दिन पूज्य श्री अमरसिंहजी ने जीरे से विहार किया उसी दिन महाराज आत्मारामजी ने जीरे प्रवेश किया। दोनों की रास्ते में अकस्मात् भेट भी हुई उस भेट में जो वार्तालाप हुआ उस का दिग्दर्शन ऊपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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