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________________ पूज्यजी साहब के आदेश का सत्कार आप हम लोगों पर यह महान उपकार कर रहे हैं, जो कि उनके पास न जाने और उनका आदर सत्कार करने का नियम दिला रहे हैं। यह तो हुई एक बात, दूसरी यह कि यदि आपका आदेश मानकर हम लोग श्री आत्मारामजी के पास न जावें और घर पर आने से उनका आदर सत्कार न करें तो यह गुरुजनों की अवज्ञा होगी, तब इस अवज्ञा का दोष हम को लगेगा कि नहीं ? पूज्यजी साहब - नहीं बिलकुल नहीं। श्रावक - अच्छा महाराज ! यदि हम आपके इस आदेश की अवहेलना करके श्री आत्मारामजी के पास चले जायें और उनका आदर सत्कार भी करें, तो क्या हमको आपके समक्ष लिये हुए नियम को तोड़ने का दोष भी लगेगा कि नहीं ? पूज्यजी साहब - हां ! लगेगा अवश्य लगेगा । श्रावक – महाराज ! आपने बड़ी कृपा की जो कि इस विषय का खुलासा कर दिया। अब एक सन्देह और है कृपया उसकी निवृत्ति भी कर दीजिये । इसी प्रकार अर्थात् आपकी तरह यदि आत्मारामजी महाराज भी अपने श्रद्धालु गृहस्थों से यह नियम करावें कि देखो भाई ! तुमने पूज्य अमरसिंहजी के पास कभी नहीं जाना उनको वन्दना नमस्कार नहीं करना और आहार पानी की विनति नहीं करना क्योंकि वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के बतलाये हुए धर्ममार्ग से विपरीत मार्ग पर चल रहे हैं । १४७ तत्र वे गृहस्थ आत्मारामजी महाराज के दिलाये हुए नियम पर दृढ़ रहकर आपके पास न आवें और आपका आदर सत्कार तथा वन्दना नमस्कार न करें तो उनको गुरुजनों की अवज्ञा करने का दोष लगेगा कहीं और यदि वे आत्मारामजी के दिलाये हुए नियम की परवाह न कर आपका स्वागत करें आपकी आहार पानी आदि से भक्ति करें तो उनको प्रतिज्ञा भंग का दोष लगेगा कि नहीं ? इसके अतिरिक्त कल्पना करो कि हम दो सगे भाई हैं एक मैं और दूसरा मुझ से छोटा । दोनों भाई एक ही मकान में रहते और एक ही चौके में भोजन करते हैं। मैं ने तो आपसे आत्मारामजी को वन्दना नमस्कार न करने का नियम ग्रहण किया, और मेरे भाई को आत्मारामजी ने आपको वन्दना नमस्कार आदि न करने का नियम दिलाया। दैव योग से एक दिन आप मेरे घर में आहार पानी के लिये पधारे परन्तु उस समय मैं वहां उपस्थित नहीं था, और मेरे बदले मेरा छोटा भाई वहां मौजूद था उसने अपने ग्रहण किये हुए नियम को सुरक्षित रखने की खातिर न तो आपको वन्दना की और नाही आहार दिया। इसी तरह एक दिन मेरे घर में जब आत्मारामजी आहार के लिये आये तब मेरे भाई के बदले मैं वहां पर मौजूद था और आपके कराये हुए नियम का पालन करना मेरे लिये भी आवश्यक था, अतः मैं ने भी अपने भाई का अनुसरण किया अर्थात् आत्मारामजी को न तो आहार दिया और नाही वन्दना नमस्कार की, फलस्वरूप वे चुपचाप मेरे घर से चले गये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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