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________________ - सत्य की प्रत्यक्ष घोषणा १४१ (३) जिनप्रतिमा की उपासना गृहस्थ का शास्त्रविहित अत्यन्त प्राचीन आचार है । जिनप्रतिमा की द्रव्य और भाव से उपासना करने का विधान साधु और गृहस्थ दोनों के लिये शास्त्रविहित है । साधु के लिये केवल भावरूप से और गृहस्थ के लिये द्रव्य और भाव दोनों रूप से पूजा करना शास्त्र सम्मत है। (४) अपने इस ढूढक पंथ का साधु वेष शास्त्र सम्मत वेष नहीं किन्तु स्वकल्पित है, और वास्तव में विचार किया जावे तो यह पंथ लौंका और लवजी की मनःकल्पित विचारधारा का ही प्रतीक है ! यदि किसी को इस सम्बन्ध में कोई शंका हो तो उसके समाधानार्थ हम हर समय उपस्थित हैं जिस तरह से भी कोई चाहे निर्णय कर सकता है । "सत्ये नास्ति भयं क्वचित्"। जैसा कि ऊपर बतलाया गया है सर्व प्रथम श्री आत्मारामजी ने प्रत्यक्षरूप से अपने इन प्रामाणिक विचारों का श्रीगणेश अंबाला में किया और जहां कहीं भी आप गये वहां इन्हीं विचारों की घोषणा की, और शास्त्रीय प्रमाणों से उनका समर्थन किया। इसके अतिरिक्त सत्य के आधार पर अपने विशिष्ट शास्त्रीय ज्ञान और प्रतिभाप्राचुर्य का परिचय देते हुए आपने विरोधी दल के साधु समुदाय-पूज्य अमरसिंह और उनके शिष्य समुदाय को अनेक बार शास्त्रार्थ के लिये ललकारा और स्पष्ट शब्दों में कहा कि इस प्रकार गुप्त रूप से अबोध जनता को मेरे विरुद्ध उकसाना साधुता के अनुरूप नहीं है, यदि आप लोगों में सच्चाई है तो मैदान में आओ और सत्यासत्य का निर्णय करो ! यदि मेरा पक्ष झूठा निकले तो मैं सबके सामने क्षमा मांगकर फिर से इस पंथ को अपनाने लगूंगा और यदि आपका पक्ष असत्य ठहरा तो इस पंथ का परित्याग करके प्राचीन वीर परम्परा का आपको अनुसरण करना होगा। परन्तु किसी में भी सामने आने का साहस नहीं हुआ। अम्बाले में आपका जो प्रवचन हुआ उसने तो जनता पर जादू का सा असर किया । आपके प्रवचन से प्रभावित होकर वहां के मुख्य नागरिक ला० जमनादास, ला० सरस्वतीमल, ला नानकचन्द, ला० गोंदामल ला. गंगाराम और लालचन्द आदि बहुत से लोगों ने उसी समय ढूढक पंथ का परित्याग करके शुद्ध सनातन जैन धर्म में दीक्षित होने की प्रतिज्ञा की। इन लोगों के इस आचरण का प्रभाव पंजाब के अन्य शहरों पर भी पड़ा । और जहां भी जाकर आपने उपदेश दिया वहां पर ही अनेक व्यक्ति आपके अनुगामी बने अर्थात् उन लोगों ने ढूढक पंथ को त्यागकर वीरभाषित सच्चे जैनधर्म को अपनाया। कुछ दिनों के बाद अम्बाला से विहार करके पटियाला और नाभा आदि नगरों में होते हुए आप मालेरकोटला पधारे । यहां पर भी आपने वीरप्रभु के सच्चे मार्ग का उपदेश दिया और ढूढक मत के पास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराया । यह तो कहने की आवश्यकता ही नहीं, कि उस समय आपकी विद्वत्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003203
Book TitleNavyuga Nirmata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayvallabhsuri
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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