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नवयुग निर्माता
प्रतिभा और सत्यनिष्ठा की होड़ करने वाला हूढक पंथ में एक भी साधु नहीं था । इसलिये सबके सब पीछे से अपने श्रावकों को उलटी सीधी समझाकर अपने बाड़े में बान्धे रखने का यत्न करते परन्तु सामने मैदान में आकर उत्तर प्रत्युत्तर करने का किसी में साहस नहीं था।
मालेरकोटले में भी आपके सदुपदेश से अनेक सद्गृहस्थों ने जैनधर्म को अंगीकार करते हुए आपके विचारों का स्वागत किया और आपसे चातुर्मास के लिये सविनय प्रार्थना करी परन्तु चौमासे में अभी कुछ देरी थी इसलिये मालेरकोटला से आपने लुधियाने को विहार किया । लुधियाने पधारने पर वहां की जनता ने आपका हार्दिक स्वागत किया और आपने भी अपनी सत्यगर्भित धर्मदेशना से वहां की जनता को कृतार्थ किया । बहुत से लोगों ने आपके पास शुद्ध सनातन जैनधर्म का श्रद्धान अंगीकार किया जिन में लाला घीसुमल, सेढमल, बधावामल, गोपीमल, निहालचन्द और प्रभुदयाल नाजर आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं । लुधियाने में आप लगभग एक महीना रहे, इस अरसे में आपके प्रतिदिन के प्रवचन में सैकड़ों जैनेतर भी उपस्थित होते और आपके उपदेशामृत के पान से अपने सद्भाग्य की सराहना करते । लुधियाने से विहार कर चातुर्मास के लिये आप मालेरकोटला पधारे । इस चातुर्मास में आपकी प्रतिदिन होने वाली धर्मप्राण सिंहगर्जना ने पंजाब के सारे ढूंढक समाज में तहलका मचा दिया । पूज्य अमरसिंहजी के अभेद्य किले की दीवारें हिलने लगी। इधर पंजाब में रहे हुए आपके साथी श्री विश्नचन्द, चम्पालाल और हुक्मचंदजी
आदि ने भी अपने गुप्तप्रचार को बराबर शुरू रक्खा । वे भी जहां कहीं जाते वहां श्री आत्मारामजी के विचारों का नीतिपूर्वक बड़ी निडरता से प्रचार करते ।
श्री विश्नचन्दजी आदि साधुओं को मालेरकोटला के गत चतुर्मास में आपने अच्छी तरह से पढ़ा लिखा कर इस योग्य बना दिया था कि वे हर एक विषय में उपस्थित की जाने वाली शंकाओं का बड़ी खूबी से पूरा सन्तोषजनक उत्तर देने की शक्ति रखते थे। और स्वयं जो शंका उपस्थित करते उसका समाधान किसी से भी बन नहीं पड़ता था। इस प्रकार सत्य के पुजारी श्री आत्माराम जी को उत्तरोत्तर सफलता मिलते देख उन्हें पंजाब से निकालने की डिमडिमा बजाने वाले पूज्य श्री अमरसिंहजी को स्वयं अपनी गद्दी को संभाल रखना भी कठिन हो गया । चारों ओर आत्मारामजी के सद्विचारों की चर्चा होने लगी। बहुत से विचारशील गृहस्थ पूज्यजी साहब और उनके शिष्यों के पास जाते और प्रश्न पूछते तो उनसे उत्तर तो बन नहीं पड़ता था किन्तु यहि कहकर अपना पीछा छुड़ाते कि तुम लोगों की श्रद्धा भ्रष्ट हो गई है, और तुम आत्माराम के बहकावे में आकर ऐसी बातें करते हो । इस समाधान से पूछने वालों की श्रद्धा को और भी दृढ़ता मिलती
और वे इतना कहकर वहां से विदा होते कि महाराज ! यह कोई उत्तर नहीं, और नाही इससे हमारा संतोष हो सकता है । बल्कि आपके इस व्यवहार से तो हमारी रही सही आस्था भी जाती रही।
विक्रम सम्वन् १९२६ में होने वाला आपका मालेरकोटले का चतुर्मास आपकी पुण्य श्लोक जीवन गाथा में विशेष उल्लेखनीय स्थान रखता है यहां पर आपको आशातीत सफलता प्राप्त हुई । आपकी सिंहगर्जना
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